श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति पौराणिक कथा

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति पौराणिक कथा एक प्रसिद्ध हिंदू कथा है जो भगवान शिव के प्रतीक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति को वर्णित करती है। यह कथा हिंदू धर्म के पवित्र तीर्थस्थलों में से एक, श्रीनागेश्वर मंदिर की स्थापना की कथा को समर्पित है।

कथा के अनुसार, एक समय की बात है, भगवान शिव अपनी भक्त दारुकी के घर में विराजमान होकर अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए। दारूकी के घर के पास ही एक विशाल सागर था, जिसमें एक नागराज नामक साधु रहता था। धनुष्ट्र नामक एक राक्षस ने नागराज को अपना वस्त्रहरण करके रखा था।

धनुर्धर की आत्मा ने धनुर्धर को बताया कि नागराज उसकी शक्ति को हर सकता है। तब धनुर्धर ने अपनी शक्ति से नागराज के ऊपर जाने का आदेश दिया, लेकिन नागराज ने अपनी शक्ति से नागेश्वर ज्योतिर्लिंग को स्थापित किया और धनुर्धर को पराजित कर दिया।

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति पौराणिक कथा

दारूका नाम की एक प्रसिद्ध राक्षसी थी, जो पार्वती जी से क्षमा प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति दारुका महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया था।
वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिमी समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से प्रचुर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जहाँ वह निवास करता था।

दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों और विविध उपकरणों से निर्मित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को ही स्थापित किया था, जो उनकी देखभाल के प्रभाव से उनके पास ही रहता था। वह पीड़ित आम जनता ने महर्षि और उनके साथियों के पास जाकर अपनी कष्ट भरी भावनाएं प्रकट कीं।

शरणागतों की रक्षा का धर्म निभाते हुए महर्षि और विष्णु ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा।

महर्षि और उनके शिष्यों ने जब भगवान को भुलाया, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर शासन किया। भगवान पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मारते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएंगे और यदि वे नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएंगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के क्षमा का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार, राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए, वहां भी प्राणियों को सताने लगे।

एक बार धर्मात्मा और सदाचारी सुप्रिय नामक शिव भक्त वैश्य थे। जब वह नाव पर सवार होकर समुद्र में जलमार्ग से कहीं जा रही थी, उस समय एक क्रूर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया।

राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बंदी बना लिया। चालीस सुप्रिय शिव जी की अनन्य भक्त थीं, इसलिए वह सदैव शिवजी की भक्ति में तन्मय से लगी रहती थीं। कारगार में भी उनकी भक्ति बंद नहीं हुई और उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी शिवाजी की भक्ति के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गए। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।

जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उपर उठ गयी। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला-वैश्य! तू पोशाक बंद करके मेरे विरुद्ध कसा सा दंड्यन्तर रच रहा है? वह जोर-जोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।

घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि इस शिवभक्त को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी अधिक भयभीत नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगे रहे। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं।

इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को भगवान शिव एक बिल से प्रकट हो गए। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर भी प्रदर्शित हुआ। उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यामान थे। वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया।

इति सं प्रार्थित: शम्भुर्विरन्निर्गतस्तदा।
भवनेनोत्तमेनाथ चतुर्द्वारयुतेन च॥

मध्ये ज्योति:स्वरूपं च शिवरूपं तद्भुतम्।
परिवारसमायुक्तं दृष्टवा चापूजयात्स वै॥

पूजितश्च तदा शम्भु: प्रसन्नौ ह्यभवत्स्वयम।
अस्त्रं पशुपतं नाम दत्त्वा राक्षसपुंगवान्॥

जघान सोपकरणांस्तान्सर्वान्सगणान्द्रुतम्।
आक्रक्षच्च स्वभक्तं वै दुष्टा स हि शंकर:॥


सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को और उनके अनुयायियों को तथा उनकी समस्त कृतियों अस्त्र-शस्त्र को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपनी भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि, आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, चारों वर्णों के धर्मों का पालन करते हैं। किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षस के लिए कोई स्थान नहीं होगा।

राक्षस पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दीन भाव से देवी पार्वती की स्तुति की। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा- बताओ, मैं तेरा कौनसा प्रिय कार्य करूं? दारूका ने कहा- माँ! आप मेरे कुल की रक्षा करें।

पार्वती ने अपने कुल की रक्षा का दावा करते हुए भगवान शिव से कहा: नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है। माता पार्वती शिव से आग्रह करतीं हुईं बोलीं कि, मैं भी आपकी शरण में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप प्रमाणित करें। यह राक्षसी दारूका राक्षसों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह भगवान के राज्य का शासन होगा। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को जन्म देंगी, जो मिल-जुल कर इस वन में निवास करेंगे- ऐसा मेरा विचार है।

माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा: प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन-पोषण तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूंगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्ति केंद्र मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा।

कलियुग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।

तत्पश्चात बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने हास्य-विलास की बातों की और उसी अवसर पर स्थित हो गए। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव नागेश्वर कहलाये और पार्वती देवी भी नागेश्वरी के नाम से विचात हुई।

इस प्रकार शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं, जोतिरु लोगों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं।

इति दत्त्वर: सोऽपि शिवेन परमात्मना।
शक्त: सर्वं तदा कर्त्तु सम्भुव न संशय:॥


एवं नागेश्वरो देव उत्पन्नो ज्योतिषां पति:।
लिंगस्पस्त्रिलोकस्य सर्वकामप्रद: सदा॥


एतद्य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादारात्।
सर्वाङ्कामानियाद्धिमान्ममहापातक नाशनान॥


नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के बाद जो व्यक्ति उसकी उत्पत्ति और महात्म्य संबंधी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है।

निष्कर्ष:

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति पौराणिक कथा हमें शिव के अद्वितीय और दिव्य स्वरूप को समझाती है। इस कथा के माध्यम से हम शिव की अद्वितीय शक्ति और उनके भक्तों के प्रति उनकी अनंत कृपा का अनुभव करते हैं। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति कथा हमें धर्म, भक्ति और निष्काम कर्म की महत्वपूर्णता को सिखाती है।

यह हमें यह भी बताता है कि भगवान की भक्ति में आत्मा की शक्ति का अनुभव कैसे होता है और कैसे हम उससे अपने जीवन को संतुष्ट और सफल बना सकते हैं।

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