नल-दमयंती कथा हिंदू धर्म की एक प्रसिद्ध कथा है जो महाभारत के वनपर्व में वर्णित है। यह कथा महाकाव्य 'महाभारत' के वनपर्व में संकलित है तथा नल और दमयंती के प्रेम की गाथा को वर्णित करती है। यह कथा प्रेम, वफादारी और परिश्रम के महत्वपूर्ण पहलुओं से परिपूर्ण है।
नल-दमयंती कथा में राजा नल की विशेष प्रेरणादायक कहानी है, पर धर्मपत्नी दमयंती के साथ उनका विश्वसनीय संबंध था। यह कथा बताती है कि कैसे नल की शक्तिशाली और साहसी प्रेम ने उन्हें उनकी विपरीत परिस्थितियों से उबारा और उन्हें उनकी धर्मपत्नी के साथ मोड़ दिया।
नल-दमयंती कथा
महाभारत महाकाव्य में एक प्रसंग के अनुसार नल और दमयंती की कथा महाराज युधिष्ठिर को सुनाई गई थी।
युधिष्ठिर को जुए में अपना सब कुछ गँवाकर अपने भाइयों के साथ 12 वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। इस वनवास के समय धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह पर महर्षि बृहदश्व ने नल-दमयंती की कथा सुनाई।
निषाद देश में वीरसेन के पुत्र नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे, उनकी सेना बहुत बड़ी थी। वे स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रभुत्वशाली पराक्रमी भी थे।
शीघ्र ही विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे। उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके अपनी क्षमा से चार संतानें प्राप्त की, तीन पुत्र दम, दन्त, और दमन एवं एक दमयंती नाम की कन्या। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी।
निषध देश से जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसनीय दमयन्ती के सृजन तक भी पहुँची थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी के रूप और गुणों की चर्चा महाराज नल के वर्णन करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयंती एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो गए।
दमयन्ती का स्वयंवर हुआ। जिसमें न केवल धरती के राजा, बल्कि देवता भी आ गए। नल भी स्वयंवर में जा रहा था। भगवान ने उसे रोककर कहा कि वह स्वयंवर में न जाए। उन्हें यह बात पहले से पता थी कि दमयंती नल को ही चुनेगी।
सभी देवताओं ने भी नल का रूप धर लिया। स्वयंवर में एक साथ कई नलखड़ी थीं। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। लेकिन दमयंती जरा भी बनी नहीं हुई, उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे भगवान ने भी अपना शासन किया। इस तरह आँखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचान कर अपनी पत्नी चुन ली।
नव-दम्पति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होगा। दमयन्ती निषध-नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय खरीदे लगे। दमयन्ती पतिव्रतों में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी नहीं सकता था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ । दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर रूप और गुणसे दयालु थे, समय सदा एक सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरंतर चलता ही रहता है।
वैसे तो महाराज नल गुणवान, धर्मात्मा और पुण्यस्लोक थे, और उनमें एक दोष था, जुआ का विकार । नल के एक भाई का नाम पुष्कर था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुआ के लिए आमन्त्रित किया। खेल आरंभ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल खोने लगे, सोना, चांदी, रथ, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयंती ने अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश की राजधानी कुंडिनपुर भेज दिया।
हे प्रभु, मैं तुम्हारा सर्वस्व हार गया। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिए। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयंती ने भी मात्र एक साड़ी में पति का पीछा किया।
एक दिन राजा नल ने सोने के पंखों वाले कुछ पक्षी देखे । राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाए तो इन्हें बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने पहने हुए वस्त्र खोलकर एक कलाकार को फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गया।
अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी कोई वस्त्र नहीं रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयंती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक पेड़ के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपे पड़े थे। दमयन्ती को थकान के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में दफन छोड़ दूँ तो यह किसी तरह अपने पिता के पास पहुँच जायेगी।
यह सोचकर उन्होंने तलवार से उसकी मुख्य साड़ी को काट लिया और उसी से अपना तन ढककर तथा दमयंती को उसी अवस्था में छोड़ कर वे चल दिये।
जब दमयंती की नींद टूटी तो उसने अपने को अकेला मानकर विलाप करना शुरू कर दिया। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक ड्रैगन के पास चली गई और ड्रैगन उसे निगलने लगा। दमयंती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होने से बचाया। किन्तु व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी काम-पिपासु का शिकार बनाना चाहा।
दमयंती उसे शाप देते हुए बोली: यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिंतन किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाएगा।
दमयन्ती की बात पूरी होती ही व्याध के प्राण-पखेरू उड़ गये। दैवयोग से भटकते हुए दमयन्ती एक दिन चेदिनरेश सुभद्रा के पास पहुंची और उसके बाद अपने पिता के पास पहुंच गई। अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नल के दुःखो का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया।
निष्कर्ष:
नल-दमयंती कथा एक महान कहानी है जो हमें प्रेम और वफादारी के महत्व को सिखाती है। यह कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन की हर स्थिति में ईमानदारी, साहस और प्रेम का होना कितना महत्वपूर्ण है। नल की निष्ठा और दमयंती की प्रेम भरी शक्ति हमें यह मानना है कि प्रेम के साथ किसी भी मुश्किल पार की जा सकती है।
इस कथा के माध्यम से हमें यह समझ मिलती है कि अच्छे कर्मों का फल हमेशा मिलता है और धर्म के पालन से हमें सफलता की दिशा मिलती है। नल-दमयंती कथा हमें अच्छे और सच्चे प्रेम की महत्वपूर्णता को समझाती है, जो हमें जीवन में सफलता और सुख की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है।