भारतीय संस्कृति में कार्तिक मास को विशेष महत्व दिया जाता है। इस मास को भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की आराधना का प्रमुख समय माना जाता है। कार्तिक मास की महिमा को वर्णित करने वाली अनेक कथाएँ और पुराण हैं, जिनमें से एक प्रमुख कथा "कार्तिक मास महात्म्य" के नाम से प्रसिद्ध है। इस कथा का अध्याय 24 भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक है।
इस अध्याय में भगवान विष्णु की लीला, भगवान की भक्ति और धर्म का महत्व विस्तार से बताया गया है। कथा का यह भाग हमें यह सिखाता है कि किस प्रकार भगवान विष्णु ने अपने भक्तों की रक्षा की और उन्हें धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। इसके साथ ही यह अध्याय भी ऐसा ही है कि कैसे धर्म के प्रति अडिग रहने से जीवन में आने वाली घटनाओं को पार किया जा सकता है।
अध्याय 24 की कथा में यह भी उल्लेख है कि कार्तिक मास के व्रत और पूजा के द्वारा किस प्रकार व्यक्ति अपने पाप से मुक्ति प्राप्त कर सकता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इस मास में गंगा स्नान, दीपदान और तुलसी पूजा का विशेष महत्व है। इन धार्मिक व्यक्तियों को न केवल शारीरिक और मानसिक शांति प्राप्त होती है, बल्कि आध्यात्मिक विकास भी होता है।
कार्तिक मास महात्म्य की इस कथा में दान और सेवा का महत्व भी विशेष रूप से वर्णित है। अध्याय 24 में यह बताया गया है कि जो व्यक्ति इस मास में दान और सेवा करता है, वह न केवल अपने पाप से मुक्ति पाता है, बल्कि उसे भगवान विष्णु का विशेष आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। इसके साथ ही यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति और सेवा ही भगवान की प्राप्ति का मार्ग है।
कार्तिक मास महात्म्य कथा: अध्याय 24
राजा पृथु बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपने तुलसी के इतिहास, व्रत, महात्म्य के विषय में कहा। अब आप मुझे यह बताइए कि कार्तिक मास में क्या और भी देवताओं की पूजा होती है? यह भी विस्तार से बताइये।
नारद जी बोले- पूर्व काल की बात है। सह्य पर्वत पर कर्वीकर में धर्मदत्त नामक विख्यात कोई धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे। कार्तिक मास के एक दिन भगवान विष्णु के जागरण के लिए वे भगवान के मन्दिर की ओर चले गए। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान के पूजन की सामग्री के साथ गए हुए ब्राह्मण ने मार्ग में देखा कि एक भयंकर राक्षसी आ रही है।
उसका शरीर नंगा और मांस रहित था। उसके बड़े-बड़े दाँत, लपकती हुई जीभ और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थ्रा उठती है। उनका सारा शरीर काम करने लगा। उन्होंने साहस कर के पूजा की सामग्री तथा जल से ही उस राक्षसी के ऊपर प्रहार किया।
उन्होंने हरिनाम का स्मरण करके तुलसीदल मिश्रित जल से उसको मारा था इसलिए उनका सारा पातक नष्ट हो गया। अब उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुई दुर्दशा का स्मरण हो आया।
उसने ब्राह्मण को दण्डवत प्रणाम कर के इस प्रकार कहा- ब्राह्मण्! मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को प्राप्त हूँ। अब मुझे किस प्रकार उत्तम गति प्राप्त होगी?
धर्मदत्त ने उसे इस प्रकार प्रणाम करते देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा- किस कर्म के फल से आप इस दशा को प्राप्त हुए हो? कहाँ की रहने वाली हो? तेरा नाम क्या है और आचार-व्यवहार कैसा है? ये सारी बातें मुझे बताओ।
उस राक्षसी का नाम कलहा था , कलहा बोली- ब्राह्मण! मेरे पूर्व जन्म की बात है, सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण रहते थे, मैं उनकी पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था और मैं बड़े क्रूर स्वभाव की स्त्री थी।
मैंने वचन से भी कभी अपने पति का भला नहीं किया, उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं दिया। सदा अपने स्वामी को धोखा ही देती रही। मुझे कलह विशेष प्रिय था इसलिए मेरे पति का मन मुझसे सदा उद्विग्न रहता था। अन्ततोगत्वा उसने दूसरी स्त्री से विवाह करने का निश्चय कर लिया, तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिये, फिर यमराज के दूत आये और मुझे छूकर पीते हुए यमलोक में ले गए।
वहाँ यमराज ने मुझे चित्रगुप्त देखकर पूछा- चित्रगुप्त! देखो तो सही इसने कैसा काम किया है? जैसा उसका कर्म हो, उसके अनुसार यह शुभ या अशुभ प्राप्त होता है।
चित्रगुप्त ने कहा- ऐसा किया गया कोई भी शुभ कार्य नहीं है। यह स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती थी और अपने स्वामी को उसमें से कुछ भी नहीं देती थी। यह सदा अपने स्वामी से द्वेष किया है, इसलिए यह चमगादुरी उठ रही है तथा सदा कलह में ही इसकी प्रवृति हो रही है, इसलिए यह विष्ठाभोजी सूकरी की योनि में रहे।..
जिस बर्तन में भोजन बनाया जाता है उसी में यह सदा अकेला खाती थी। अत: उसके दोष से यह अपनी ही सन्तान का भण्डार करने वाली बिल्ली हो। इसने अपने पति को निमित्त संपूर्ण आत्मघात किया है, इसलिए यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री प्रेत के शरीर में भी कुछ काल तक अकेली ही रही। इसे यमदूतों द्वारा निर्जल प्रदेश में भेजना चाहिए, वहां दीर्घकाल तक यह प्रेत के शरीर में निवास करे। इसके बाद यह पापिनी शेष तीन योनियों का भी उपयोग करेगी।
कलहा ने कहा- विप्रवर! मैं वही पापिनी कलहा हूँ। इस प्रेत शरीर में आये मैं पाँच सौ वर्ष बीत गये हैं। मैं सदैव भूख-प्यास से पीड़ित रहती हूँ। एक बनिये के शरीर में प्रवेश करके के मैं इस दक्षिण देश में कृष्णा और वेणी के संगम तक आया हूँ।
ज्यों ही संगम तट पर पहुंचीं त्यों ही भगवान शिव और विष्णु के सरदारों ने मुझे बलपूर्वक बनिये के शरीर से दूर भगा दिया, तब से मैं भूख का कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही हूँ। बहुत में ही आपकी ऊपर मेरी दृष्टि पड़ गई।
आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग मेरे सब पाप नष्ट हो गए हैं। द्विजश्रेष्ठ! अब आप ही कोई उपाय कीजिए। बताइए मेरे इस शरीर से और भविष्य में होने वाली भयंकर तीन योनियों से किस प्रकार मुक्त होगी?
कलहा का यह वचन सुनकर धर्मदत्त ने अपने पिछले कर्मों और वर्तमान अवस्था को बहुत दुखी हुआ, फिर उसने बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा.. (धर्मदत्त जी के कथन की कथा का वर्णन पच्चीसवें अध्याय में किया गया है)
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कार्तिक मास महात्म्य का अध्याय 24 न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें जीवन जीने की कला भी सिखाता है। इस अध्याय से यह स्पष्ट होता है कि धर्म, भक्ति और सेवा का समन्वय ही जीवन का सही मार्ग है। भगवान विष्णु की कथा और उनके उपदेश हमें यह बताते हैं कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, यदि हम धर्म के मार्ग पर अडिग रहते हैं, तो सफलता अवश्य मिलती है।
इस कथा का यह भाग हमें यह भी सिखाता है कि कार्तिक मास का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व केवल पूजा और व्रत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमें अपने जीवन को अनुचित और अपने कर्मों को शुद्ध करने का अवसर भी प्रदान करता है। भगवान विष्णु की कृपा से व्यक्ति अपने जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति पा सकता है और अपने जीवन को सुखमय बना सकता है।
अंततः, कार्तिक मास महात्म्य का अध्याय 24 हमें यह प्रेरणा देता है कि हम अपने जीवन में धर्म, सेवा और भक्ति का समावेश करें और अपने जीवन को सार्थक बनाएं। यह अध्याय हमें यह भी स्मरण कराता है कि भगवान विष्णु सदैव अपने भक्तों के साथ रहते हैं और उनकी रक्षा करते हैं।
यदि हम सच्चे मन से भगवान की आराधना करें और उनके उपदेशों का पालन करें, तो हमारे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि अवश्य आएगी।