हिंदू धर्म में कई पौराणिक कथाएं हैं जो हमें हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत की ओर आकर्षित करती हैं। इन कथाओं में से एक हिरण्यगर्भ दुग्धेश्वरनाथ महादेव की कथा है, जो भगवान शिव के एक महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध है। इस कथा के माध्यम से हम भगवान शिव के महत्व और उनके परमप्रतापी अवतारों को समझ सकते हैं।
हिरण्यगर्भ दूधेश्वरनाथ महादेव की पौराणिक कथा हमें धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सिखाती है कि कैसे भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिए हर दुख को उनके लिए एक आसान यात्रा में बदल देते हैं। यह कथा हमें यह भी बताती है कि भगवान के भक्त कभी भी अपनी श्रद्धा और समर्पण में कमी नहीं करते, चाहे जीवन की किसी भी स्थिति में हो।
हिरण्यगर्भ दूधेश्वर ज्योतिर्लिंग प्रादुर्भाव पौराणिक कथा!
ॐ हौं जूं स: ॐ भू र्भुव: स्व:।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम् ॥
उर्वारुकी मिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
स्व: भुव: भू ॐ स: जूं हौं ॐ ॥
द्वादश ज्योतिर्लिंगों के अतिरिक्त अनेक ऐसे हिरण्यगर्भ शिवलिंग हैं, जिनके बराबर बड़ा अदभुत महातम्य है। इनमें से अनेक बड़ी चमत्कारी और मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले तथा सिद्धपीठों में स्थापित हैं।
ऐसे ही सिद्धपीठ श्री दूधेश्वर नाथ महादेव मठ मंदिर के अतिपावन प्रांगण में स्थापित हैं। स्वयंभू हिरण्यगर्भ दूधेश्वर शिवलिंग।
हिरण्यगर्भः समवर्तताअग्रेभूतस्य जातः पतिरेक आसीत्
पुराणों में हरनंदी के निकट हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग का वर्णन मिलता है। हरनंदी, हरनद अथवा हिरण्यदा ब्रह्मा जी की पुत्री है और कालांतर में उनका नाम हिंडन विख्यात हुआ। शिवालिक की पर्वत श्रृंखलाओं से सहारनपुर से कुछ दूर निकल हिंडन पुराण की प्रसिद्ध नदी है। यह तीन छोटी जलधाराओं से मिलकर हिंडन रूप धारण किया गया है। हिंडन के दर्शन, इसमें स्नान व पूजन से अनेक जन्मों के पाप-ताप सब स्वत: समाप्त हो जाते हैं, ऐसी मान्यता प्राप्त है।
हिंडन के पावन तट पर तपस्वियों के मंत्रोच्चारण से यहाँ का वातावरण पवित्र होता था। साथ ही इस क्षेत्र के दुर्गम वन प्रांतर में रहने वाले मारीच, सुबह और तड़के जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के मदांधों के हमलों से भी यह क्षेत्र कम्पायमान रहता था।
गाज़ियाबाद के पास बिसरख नामक एक गाँव है। पहले यहाँ घना जंगल था। रावण के पिता विश्वेश्रवा ने यहां तपस्वी की थी। वह शिव के परम भक्त थे।
अब गौतमबुद्धनगर जिले में रहने वाले रावण के पत्रक गांव बिसरख में आज भी वह पूजनीय है। इस गांव में न तो रामलीला का मंचन होता है और न ही दशहरा उत्सव मनाया जाता है। इस गाँव का नाम ऋषि विश्वेश्रवा के नाम पर विश्वेश्वरा पड़ा, कालांतर में इसे बिसरख कहा जाने लगा।
त्रेतायुग में श्री रामावतार से पूर्व कुबेर के पिता महर्षि पुलस्त्य बिसरख क्षेत्र में ही निवास करते थे। महर्षि पुलस्त्य का विवाह महर्षि भारद्वाज की बहन से हुआ था। कुबेर इसी प्रकार भाग्यशाली दम्पति के सुपुत्र थे।
कुबेर ब्रह्मा जी के देवता तथा भगवान शिव के अनन्य मित्र और देवलोक के निवासी थे। अपनी व्यस्तताओं के कारण कुबेर के पास इतना समय नहीं था कि वह अपने पिता को भी थोड़ा समय दे सके। इसी के कारण महर्षि पुलस्त्य अपने पुत्र से न मिल पाने के कारण कुंठित रहते थे। कुबेर को भी अपने पिता की सेवा न कर पाने का कष्ट था, लेकिन समयाभाव के कारण इस समस्या का कोई समाधान उनके पास नहीं था।
महर्षि पुलस्त्य प्रकाण्ड विद्वान थे। एक दिन उन्होंने सोचा: यदि पुत्र कुबेर के परम मित्र भगवान शिव को प्रसन्न कर उन्हें अपने पास रख लूँ तो समस्या का समाधान स्वत: हो जायेगा। कुबेर अपने परम मित्र शिवाजी से मिलने आया तो मैं भी उससे मिल लिया जाएगा।
पल दो पल ही सही मेरा बेटा कुबेर मेरे पास ले लिया होगा। बाप-बेटे दुःख-सुख की बातें कर लेंगे।
यही सबसे सही उपाय है: ऐसा सोचकर महर्षि पुलस्त्य ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने का निर्णय लिया। बिसरख की भीड़-भाड़ व चहल-पहल में बीमारियां उत्पन्न होती हैं, क्योंकि महर्षि पुलस्त्य ने हिंडन के निकटवर्ती सकल वन को अपनी तपस्या के लिए चुना।
उन्होंने भगवान भोले नाथ की वर्षों तक निरंतर आराधना की। किसी भी बाधा के जारी होने के बिना उनकी प्रतिमा ने अपना रंग दिखाया। महर्षि पुलस्त्य की सिद्धि यहाँ तक पहुँची कि वे स्वयं भगवान शंकर के रूप में हो गए।
महर्षि पुलस्त्य की तापोराधना से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ माता पार्वती सहित साक्षात प्रगट हुए। भगवान शिव ने महर्षि पुलस्त्य से कहा: मैं तेरे आराधना से अत्यंत प्रसन्न हूँ। मैं काशी और कैलाश में वास करता हूँ। तुम्हारी इच्छा है की मैं यहाँ वास करूँ। काशी तो मेरे त्रिशूल पर टिकी है, दूसरा त्रिशूल मेरे पास नहीं है, क्योंकि यहाँ काशी तो बन नहीं सकती। हाँ, यदि तुम चाहो तो यहाँ कैलाश अवश्य बन सकता है।
इसपर महर्षि पुलस्त्य ने कहा: प्रभो! आप यहाँ कैलाश बनाने की आज्ञा दें और उसी में वास करें: इसमें मेरा स्वार्थ तो निश्चित रूप से है लेकिन जनकल्याण की भावना भी इसमें निहित है। आपके आशीर्वाद से जन-जन का कल्याण अनंतकाल तक होता रहेगा।
महर्षि पुलस्त्य ने जिस स्थान पर घोर तप किया और शिवस्वरूप हो विश्वेश्रवा कहलाये: जिस स्थान पर भगवान शिव ने विश्वेश्रवा को माता पार्वती के साथ साक्षात दर्शन दिए और उन्हें कैलाश बनाने की आज्ञा दी, जिस स्थान पर अपनी पहचान के रूप में भगवान भोलेनाथ हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग छोड़ गए, उसी स्थान को आज श्री दूधेश्वर नाथ महादेव मठ मंदिर के नाम से जाना जाता है।
वह अति पावन ज्योतिर्लिंग है, जिसके दर्शन मात्र से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। यही वह मंगलकारी दूधनियंता भगवान भोलेनाथ का दूधेश्वर लिंग है जिसके अभिषेक से जन्म-जन्म के पुण्य से मुक्ति मिल जाती है
शिव साधक विश्वेश्रवा के पुत्र रावण भी अपने तपस्वी पिता की तरह ही भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। शिवजी के प्रति रावण की भक्ति जगविदित एवं अनुकरणीय है। अपने पिता के तपोबल से विकसित कैलाश में हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग श्री दूधेश्वर की रावण ने भी वर्षों तक साधना की थी। रावण यहाँ तब तक श्री दूधेश्वर का अभिषेक करता रहा था जब तक महर्षि विश्वेश्रवा स्वेर्त स्वर्ण नगरी लंका में नहीं जा बसे थे।
इसी पुराण में वर्णित हिरण्यगर्भ ज्योतिर्लिंग को श्री दूधेश्वर नाथ महादेव के नाम से जाना जाता है जाना व पूजा जाता है।
समापन:
इस पौराणिक कथा के माध्यम से हम मानते हैं कि हमारी संस्कृति में कितनी गहराई समाहित है। हिरण्यगर्भ दुग्धेश्वरनाथ महादेव की यह कथा हमें ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है कि हमें भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा को स्थिर रखना चाहिए और उनकी प्रति हमारी आस्था को कभी भी कमजोर नहीं होने देना चाहिए।
इस कथा के माध्यम से हम भगवान शिव की महिमा को समझते हैं और उनकी भक्ति और समर्पण को मजबूत करते हैं। इसलिए, हमें यह कथा न सिर्फ एक कहानी के रूप में देखना चाहिए, बल्कि इसे अपने जीवन में एक दिशानिर्देश के रूप में ग्रहण करना चाहिए।