गंगा दशहरा कथा

भारतीय संस्कृति की अमूल्य धारा में, धर्म और परम्परा का अद्वितीय मेल मिश्रण देखने को मिलता है। इस अनोखे संगम का उत्सव है "गंगा दशहरा"।

यह पर्व गंगा नदी के महत्व को पूरा करने का उत्कृष्ट अवसर है और इसे मनाने का एक उत्कृष्ट तरीका है। इस लेख में, हम गंगा दशहरा के पर्व की कहानी को समझेंगे, जो हमें इस पवित्र समय की महत्ता और धार्मिक अर्थ को समझाएगी।

गंगा दशहरा का उत्सव भारत में विशेष रूप से उत्तर भारत के प्रदेशों में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व गंगा माता के पावन जल को समर्पित है, जिसका धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व है।

गंगा नदी को धरती माता के रूप में पूजा जाता है और इसे मोक्षदायिनी कहा जाता है। इस पर्व के दौरान, लोग नदी के किनारे जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

गंगा दशहरा कथा

भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्याके सूर्यवंश में हुआ था। चक्रवर्ती महाराज सागर उनके पूर्वज थे। 🔹 केशनी और सुमति नामी दो रानियाँ थे। केशिनीके पुत्र का नाम असम्ञ्जस था और सुमतिके साथ हजार पुत्र थे। असमञ्जसके पुत्रका नाम अंशुमान था। राजा सगरके असमञ्जस्सहित सभी पुत्र अत्यन्त उद्दण्ड और दुष्ट प्रकृतिके थे, किन्तु पुत्र अंशुमान वह धार्मिक और देव-गुरुपूजक था। पुत्रों से दुःखी होकर महाराज सागरने असमञ्जसको देशसे निकाल दिया और अंशुमान्को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सागरके अन्य साठ हजार पुत्रोंसे देवता भी दुःखी रहते थे।
एक बार महाराज सगरने अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान किया और उसके लिए घोड़े को भगाया। इन्द्रने अश्वमेधयज्ञके उस घोड़े को चुराकर पाताल में ले जाकर कपिलमुनिके आश्रम में छोड़ दिया, परन्तु ध्यानस्थित मुनि इस बातको जान न सके। सागरके साथ हज़ारों अहंकारी पुत्रों ने पृथ्वी का कोना-कोनाचमत्कार मारा, परन्तु वे घोड़ों को न पा सके। अन्तमें उन लोगोंने पृथ्वीसे पातालतक मार्ग खोजा और डाला कपिलमुनि के आश्रम में जा पहुंचे। वहाँ घोड़े बाँध देखकर वे क्रोधित हो गए शस्त्र तोड़ कपिल मुनि को मार डाला। प्रकृतिमें बाधाओंपर मुनि ने अपनी आकृतियाँ खोलीं। उनके तेजस सागरके साथ हजार उद्दण्ड पुत्र तत्काल भस्म हो गये।

गरुड़ के द्वारा इस घटना की जानकारी मिलने पर अंशुमान कपिलमुनि के आश्रम में आये और उनकी स्तुति की। कपिल मुनि अपने विनय से प्रसन्न बोले- अंशुमन्! घोड़े ले जाओ और अपने पितामहका यज्ञ पूरा कराओ । ये सागरपुत्र उद्दण्ड, अहंकारी और अधार्मिक थे, इनकी मुक्ति तभी हो सकती है जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श हो।

अंशुमान ने अपने पिता महाराज सागर का यज्ञ पूरा करने के लिए घोड़ा ले जाकर यज्ञ पूरा किया। महाराज सागर के बाद अंशुमान राजा बने, लेकिन उन्हें अपने चाचाओं की मुक्ति की चिंता बनी रही। कुछ समय बाद आपका पुत्र डीपी को राज्य का आधा हिस्सा सौंपकर वे वन में चले गए तथा गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका शरीरान्त भी हो गया।

महाराज दिलीप ने भी अपना पुत्र भगीर्थ को राज्यभार देकर स्वयं पिता के मार्ग का अनुसरण किया गया। उनकी भी श्रद्धा में ही शरीरान्त हुआ, परन्तु वे भी गंगाजी को पृथ्वी पर न ला सके। महाराज दिलीप के बाद भगीरथ ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। कहा कि अन्त में तीन पापों की इस तपस्या से प्रसन्न हो पितामह ब्रह्माणे भगीरथ को दर्शन देकर वर मांगने को कहा।

भगीरथने कहा- हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिलमुनि के शाप से भस्म हो गए हैं, उनकी मुक्ति के लिए आप गंगाजी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।
ब्रह्माजीने कहा - मैं गंगाजी को पृथ्वीलोक पर भेजूंगा तो अवश्य दूँगा, परन्तु उनके वेग को कौन रोकेगा, इसलिये देवाधिदेव भगवान शंकर की आराधना करनी होगी।

भगीरथने एक पैर पर्लिफ्ट भगवान शंकर की आराधना शुरू कर दी। अपने तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने गंगाजी को अपनी जटाओं में रोक लिया और उनमें से एक जटाको पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगाजी पृथ्वी की ओर चलीं। अब आगे-आगे राजा भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी थे।

मार्ग में जहुऋषि का आश्रम पड़ा, गंगाजी उनके कमण्डलु, दण्ड आदि बहाते हुए जाते। यह देख ऋषिने उन्हें पी लिया। कुछ दूर जानेपर भागीर्थने पीछे मुड़कर देखा तो गंगाजी को न देख वे ऋषिके आश्रम पर आकर उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न हो ऋषि ने अपनी पुत्री गंगाजी को कान से निकाल दिया। क्योंकि देवी गंगा जाह्नवी नामसे भी जानी जाती हैं। भगीरथ कीतास्थल से अवतरित होने के कारण भागीरथी भी कहा जाता है।

इसके बाद भगवती भागीरथी गंगाजी मार्गको हरा-भरा शस्य-श्यामल करते हुए कपिलमुनि के आश्रम में पहुंचीं, जहां महाराज भागीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढेरियां बनीं थीं। गंगाजल के स्पर्श मात्र से वे सभी दिव्यरूप धारी हो दिव्य लोगों को चले गए।

निष्कर्ष:

गंगा दशहरा का उत्सव एक ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का प्रतीक है। यह हमें हमारी संस्कृति और धरोहर के प्रति समर्पित रहने की महत्ता को समझाता है।
इस उत्सव के माध्यम से हम अपने अतीत को याद करते हैं, और गंगा माँ के पावन जल का आभास करते हैं जो हमें धार्मिकता, प्रेम और समर्पण की भावना से जोड़ता है। इस पर्व को मनाने के माध्यम से हम गंगा मां की कृपा प्राप्त करते हैं और अपने जीवन में शुभ और शांति का अनुभव करते हैं।
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