गजेन्द्र और ग्रह मुक्ति कथा हिंदी में

भारतीय पुराणों में अनेक अद्भुत कथाएँ हैं जो हमें धर्म, आस्था और चरित्र के महत्वपूर्ण सन्देश देती हैं। ऐसी ही एक अद्भुत कथा है "गजेन्द्र और ग्रह मुक्ति कथा"।

यह कथा हमें विष्णु पुराण और भागवत पुराण में मिलती है। गजेन्द्र, एक विशाल और शक्तिशाली हाथी, और ग्राह, एक खतरनाक मगरमच्छ, के बीच इस कथा में अनेक रहस्यमय संदेश छिपे हुए हैं।

कथा के अनुसार, गजेन्द्र एक राजकुमार थे जो पूर्व जन्म में पाण्ड्य देश के राजा इन्द्रद्युम्न थे। एक दिन वह राजा अपने राज्य के जंगल में शिकार के लिए गया। जंगल में एक शांत और सुन्दर सरोवर देखकर उसने वहां स्नान करने का निश्चय किया।

स्नान के दौरान, एक विशाल अजगर ने गजेंद्र का पैर पकड़ लिया और उसे पानी के भीतर खींच लिया। गजेन्द्र ने पूरी ताकत से संघर्ष किया, लेकिन पंजे की पकड़ बहुत मजबूत थी। जब उसकी सारी भौतिक शक्तियां समाप्त हो गईं, तो उसने भगवान विष्णु को स्मरण किया और उनकी शरण में जाने का निश्चय किया।

गजेन्द्र ने एक कमल का फूल चढ़ाकर भगवान विष्णु की स्तुति की और उन्हें अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उनकी भक्ति और आस्था ने भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और वे तुरंत गरुड़ पर सवार होकर गजेंद्र की सहायता के लिए पहुंचे। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से ग्रह का वध किया और गजेन्द्र को उसके बन्धन से मुक्त किया। गजेंद्र की भक्ति और विष्णु की करुणा ने उन्हें न केवल शारीरिक मुक्ति बल्कि आत्मिक शांति और मोक्ष भी प्रदान किया।

गजेन्द्र और ग्रह मुक्ति कथा

क्षीरसागर में एक त्रिकूट नामक प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ पर्वत था। उसका आदर्श आकाश छूती थी। उसकी लम्बी-चौड़ी भी चारों ओर काफी विस्तृत थी। उसके तीन शिखर थे, पहला सोने का, दूसरी चण्डी का तीसरा लोहा का। इनकी चमक से समुद्र, आकाश और दिशाएँ जगमगाती रहती थीं।
इनके अलावा उनके और कई छोटी-छोटी चोटियाँ थीं जो रत्नों और अनमोल रत्नों से बनी हुई थीं । सब ओर से समुद्र की लहरें आती इस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं, जिससे ऐसा प्रतीत होता कि समुद्र इनके पांव पखार रहा था।

पहाड़ की तलहटी में तरह-तरह के जंगली जानवर बसेरा बनाए हुए थे। इसके ऊपर बहुत सी नदियाँ और सरोवर भी थे।

इस पर्वतराज त्रिकूट की तराई में एक तपस्वी महात्मा रहते थे जिनका नाम वरुण था। महात्मा वरुण ने एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान में अपनी कुटी बनाई थी। इस पार्क का नाम ऋतुमान था। इसमें सब ओर अत्यन्त ही दिव्य वृक्ष शोभा पा रहे थे, जो सदा पुष्पों से लदे रहते थे।

इस उद्यान में एक बड़ा-सा सरोवर भी था, जिसमें सुनहले कमल भी खिले रहते थे तथा विभिन्न जातियों के कुमुद, उत्पल, शतदल कमल अपनी अनूठी छटा बिखेरते थे। हंस, चक्रवाक और सारस आदि पक्षी झुण्ड के झुण्डभरे हुए थे। मछली और कछुवों के खिलवाड़ से कमल के फूल जो हिलते थे उससे उसका पराग झड़कर सरोवर जल को अत्यन्त सुगन्धित कर देता था

कदम्ब, नरकुल, बेंत, बेन आदि वृक्षों से यह घने वृक्ष रहता था। कुन्द कुर्बक, अशोक, सिरस, वनमल्लिका, सोनजूही, नाग, हरसिंहार, मल्लिका शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्प वृक्षों से प्रत्येक ऋतु में यह महात्मा वरुण का सरोवर शोभायमान रहता था।

क्षीरसागर से त्रिकूट पर्वत पर दुर्भाग्य ठीक-ठाक चल रहा था। एक बार एक दुखद घटना घटित हुई। इस पर्वत के घोर जंगल में एक विशाल मतवाला हाथी रहता था। वह कई शक्तिशाली हाथों का सरदार था। उसके पीछे बड़े-बड़े हाथियों के झुण्ड के झुण्ड चलते थे।

इस गजराज से, उनकी महान् शक्ति के कारण बड़े से बड़े हिंसक जानवर भी सरदार थे और एक बात यह भी थी कि उनकी कृपा से लंगूर, भैंसे, भेड़िए, हिरण, रीछ, वनैल कुत्ते, खरगोश आदि छोटे जीव निर्भय होकर घूमते थे क्योंकि उनके रहते कोई भी हिंसक जानवर उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता था।
गजराज मदमस्त था। उसके सिर के पास से टपकते मद का पान करने के लिए भँवरे उसके साथ गूँजते जाते थे।

एक दिन बड़े जोर की धूप थी। वह प्यास से व्याकुल हो गया। अपने झुंड के साथ वह उसी सरोवर में उतरा पड़ा जो त्रिकूट की तराई में स्थित था। जल उस समय अत्यन्त शीतल एवं अमृत के समान मधुर था। सबसे पहले उस गजराज ने अपनी ध्वनि से उठकर इस अमृत-सदृश्य जल का पान किया। फिर उसमें स्नान करके अपनी थकान मिटाई।

उसके पश्चात उसका ध्यान जलक्रीड़ा की ओर चला गया। वह ध्वनि से पानी भरकर अन्य हाथों पर स्लड लगा और अन्य भी वही करने लगे। मदमस्त गजराज पित भूलकर जल क्रीड़ा का आनन्द उठा रहा । उसे यह पता नहीं था कि उस सरोवर में एक बहुत बलवान गृह भी रहता था।

उस ग्रह ने क्रोधित होकर कहा कि गजराज के पैर को जोरों से पकड़ लिया और उसे खींचकर सरोवर के अन्दर ले जाने लगे। उसके पानी के दातों के गड़ने से गजराज के पैर से रक्त का प्रवाह निकल पड़ा जिससे वहां का पानी लाल हो गया।

उसके साथ के हाथियों और हथिनियों को गजराज की इस स्थिति पर बहुत चिंता हुई। वह एक साथ मिलकर गजराज को जल के बाहर खींचने का प्रयास किया परंतु वे इसमें सफल नहीं हुए। वे घबराकर ज़ोर-ज़ोर से छेड़छाड़ करने लगे। इस पर दूर-दूर से आते हाथों के कई झुण्डों ने गजराज के झुण्डों से मिलकर उसे बाहर खींचना चाहा लेकिन यह सम्मिलित प्रयास भी असफल रहा।

सभी हाथी शांत हो गए। अब ग्रह और गजराज में घोर युद्ध की कहानी लगी दोनों अपने रूप में काफी बलशाली थे और हारने वाले नहीं थे।

कभी गजराज ग्राह को खींचकर पानी से बाहर लाता तो कभी ग्राह गजराज को खींचकर पानी के अन्दर ले जाता और गजराज का पैर किसी तरह ग्राह के मुँह से छूट नहीं रहा था बल्कि उसके दाँत गजराज के पैर में और गड़ते ही जा रहे थे और सरोवर का पानी पूरी तरह लाल हो गया था।

गज और ग्रह के बीच युद्ध कई दिनों तक चला। अन्त में अधिक रक्त बह जाने के कारण गजराज शिथिलता महसूस हुई। उसे लगा कि अब वह ग्रह के हाथों परस्त हो जाएगी।

उसे इस समय कोई उपाय नहीं सूझा और उसकी मृत्यु हो गई भगवान नारायण की याद आई । पूर्व जन्म की अविच्छिन्न भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवतस्मृति हो आई।

उन्होंने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों की शरण में सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूँ। इस निश्चित के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा गजेन्द्र मोक्ष स्तुति करने लगा।

उसने एक कमल का फूल तोड़ा और उसे आसमान की ओर इस तरह गाया गया जैसे वह उसे भगवान को अर्पित कर रहा हो। अब तक वह ग्रह द्वारा खींचे जाने से सरोवर के मध्य गहरे जल में चली गई थी और उसकी सूड़ का केवल वह भाग ही ऊपर बचा था, जिसमें उसने लाल कमल-पुष्प पकड़ रखा था।

उन्होंने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपनी पूरी तरह से दयालुता की घोषणा करके नारायण को पुकारा। भगवान समझ गए कि यह उनकी शक्ति का मद बन रहा है और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है।

जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना विरोधी नहीं मानता तो नारायण के `ना` के उच्चारण के साथ ही वह गरुण पर सवार होकर पूरे चक्र को धारण किए हुए सरोवर के किनारे तक पहुँच गए। उन्होंने देखा कि गजेन्द्र शिखर ही वाला है। वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े।

इस समय तक बहुत से देवी-देवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहां उपस्थित हो गए थे। सभी के तम ही तम भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाल दिया। भगवान ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्रह का मुँह तोड़ जवाब दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।

ग्रहते-देखते तड़प कर मर गया और गजराज भगवान की कृपा-दृष्टि से पहले की तरह स्वस्थ हो गया।
ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की स्तुति करते हुए उनकी सर्वोच्च स्वर्गीय सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे।

ग्रह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने भगवान विष्णु के चरणों में सिर उठाकर प्रणाम किया और भगवान विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा।

भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्ति के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त गंधर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रेलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया।

भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का शव लेकर उसे अपना वर्तमान बना लिया। गंधर्व, सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे।
भगवान विष्णु ने गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर सर्वगुण सम्पन्न किया: प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी हुई स्तुति से मेरा स्तूप करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान दूंगा।

इस कारण भगवान विष्णु ने भगवान गजेन्द्र को अपने साथ ले लिया और गरुड़रुड़ के द्वारा अपने दिव्य धाम को ले गए।

गज-ग्राह दोनों की अगली जन्मो की कहानी?
गज-ग्राह को अपनी भक्ति और विष्णु के हाथों मुक्ति के कारण वैकुंठ में स्थान मिला, इस लोक में दोनों द्वारपाल हुए, समान ही नाम जय और विजय हुआ। आगे सनत कुमारो के श्राप के चलते दोनों हिरण्याक्ष - हिरण्यकश्यपु , रावण - कुंभकर्ण और शिशुपाल - दन्तवक्र हुए थे।

गज-ग्रह दोनों की पूर्व जन्मो की कहानी?
ऋषि कपिल का नाम तो सभी ने सुन ही रखा है जिसके वंशज ऋषभ देव से जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, वह कपिल मुनि महर्षि कर्दम के पुत्र थे। कर्दम ऋषि की पत्नी का नाम देवहुति था, उनके गर्भ से कपिल मुनि आये थे लेकिन वे देवहुति को कर्दम जी से पहले और भी संताने थीं।

उन्ही कर्दम और देवहुति के कपिल मुनि से दो बड़े पुत्र और थे जो वेदज्ञ थे, एक बार एक राजा के यहाँ यज्ञ संपन्न कराके आये दोनों को जब धन मिला तो उसके लिए विवाद हो गया था। तब दोनो ने एक दूसरे को ग्रह और गज होने का श्राप दे दिया , दोनों विष्णु भक्त थे और दोनों की बात सच भी हुई।

परन्तु मृत्यु से पहले ही विष्णु जी को प्रसन्न कर लिया और क्षमा में मुक्ति मांग ली और इसीलिए अगले जन्म में उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हुआ और दोनों ने भगवान विष्णु के हाथो मुक्ति पाई।
॥ जय श्री विष्णु हरि ॥

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गजेन्द्र और ग्राह मुक्ति कथा न केवल एक मनोरंजक और रोमांचक कथा है, बल्कि यह हमें गहन आध्यात्मिक और नैतिक सन्देश भी देती है।

यह कथा हमें सिखाती है कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ और संकट क्यों न हों, सच्चे मन से ईश्वर का स्मरण और उनकी शरण में जाने से हम मुक्ति पा सकते हैं। गजेंद्र की भक्ति और विष्णु की कृपा का यह संदेश हमें यह भी बताता है कि ईश्वर सदैव अपने भक्तों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं, हम अपने अहंकार और आत्मशक्ति को त्यागकर पूर्ण निष्ठा और विश्वास के साथ उनकी शरण में जाते हैं।

इस कथा में ग्रह का प्रतीक हमारे जीवन की समस्याओं और समस्याओं के रूप में देखा जा सकता है, जिसे हम नीचे खींचने का प्रयास करते हैं।

हमें यह सिखाते हैं कि कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और विश्वास बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। यह कथा हमें यह भी बताती है कि भक्ति और आस्था के बल पर हम किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं और अपनी आत्मा की मुक्ति पा सकते हैं।

गजेंद्र और ग्राह मुक्ति की यह अमर गाथा हमें अपने जीवन में सही मार्ग पर चलती है और ईश्वर में अडिग विश्वास रखने की प्रेरणा देती है। यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति और ईश्वर पर अटूट विश्वास के साथ हम किसी भी विपत्ति से मुक्त हो सकते हैं और जीवन में सच्ची शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

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