अन्नपूर्णा माता व्रत कथा हिंदी में

अन्नपूर्णा माता व्रत कथा भारतीय परंपरा और धार्मिक आस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह व्रत मुख्य रूप से जीवन में सुख, समृद्धि और शांति के लिए किया जाता है। अन्नपूर्णा माता को अन्न की देवी माना जाता है और उनकी पूजा से जीवन में अन्न की कभी कमी नहीं होती।

इस व्रत को करने से व्यक्ति को न केवल भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं बल्कि आध्यात्मिक शांति और संतोष भी मिलता है।

अन्नपूर्णा माता का व्रत हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है। इस व्रत की कथा में अन्नपूर्णा माता और भगवान शिव के बीच का संवाद और उनकी कृपा से भक्तों को मिलने वाले लाभ का वर्णन है। व्रत करने वाले व्यक्ति को यह कथा सुनना या पढ़ना अनिवार्य माना जाता है। कथा का श्रवण करने से व्यक्ति के समस्त पापों का नाश होता है और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है।

व्रत कथा के माध्यम से हम जाएंगे कि कैसे अन्नपूर्णा माता ने भगवान शिव को अन्न का महत्व समझाया और भक्तों को अन्न की महिमा का अनुभव कराया। इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए और अन्नपूर्णा माता की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद विधिपूर्वक कथा सुननी या पढनी चाहिए।

अन्नपूर्णा माता व्रत कथा

मां अन्नपूर्णा माता का महाव्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष पंचमी से प्रारम्भ होता है और मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को समाप्त होता है। यह उत्तमोत्तम व्रत सत्रह दिनों का होता है और कई भक्त 21 दिन तक भी व्रत रखते हैं।

माँ अन्नपूर्णा माता के महाव्रत की कथा

एक समय की बात है, काशीवासी धनंजय की पत्नी का नाम सुलक्षणा था। जब उसने अन्य सब सुख प्राप्त कर लिए थे, केवल निर्धनता ही उसके दुःख का एक मात्र कारण थी। यह दुःख उसे हर समय सताता रहता था।
एक दिन सुलक्षणा पति से बोली- स्वामी! आप कुछ उद्यम करो तो काम चले। इस प्रकार कब तक काम किया जाता है?
सुलक्षणा की बात धनंजय के मन में बैठ गई और वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए बैठ गई और कहने लगी- हे देवाधिदेव विश्वेश्वर ! मुझे पूजा-पाठ कुछ नहीं आता, केवल आपके अधीन हूँ। इतनी विनती करके वह दो-तीन दिन भूखा-प्यासा बैठा रहा। यह देखकर भगवान शंकर ने उसके कान में अन्नपूर्णा की ! अन्नपूर्णा ! अन्नपूर्णा !

इस प्रकार तीन बार कहा। ये कौन, क्या कह गया? इसी सोच में धनंजय पड़ गया कि मन्दिर से आते ब्राह्मणों को देखकर लगा- पंडितजी! अन्नपूर्णा कौन है?
ब्राह्मणों ने कहा- तू अन्न छोड़ बैठा है, तो तू अन्न की ही बात सोचती है। जा घर जाकर अन्न ग्रहण कर। धनंजय घर गया,
स्त्री से सारी बात कही, वह बोली- नाथ! चिंता मत करो, स्वयं शंकरजी ने यह मंत्र दिया है। वे स्वयं ही प्रकट करेंगे। आप फिर जाकर उनकी आराधना करो। धनंजय फिर जैसा का तैसा पूजा में बैठ गया। रात्रि में शंकर जी ने आज्ञा दी और कहा- तू पूर्व दिशा में चला जा।

वह अन्नपूर्णा का नाम जपता जाता है और मार्ग में फल खाते, झरनों का पानी पीता जाता है। इस प्रकार कितने ही दिनों तक चलता रहा। वहां उसे चांदी सी चमकती वन की शोभा देखने में आई। सुन्दर सरोवर देखने में या, उसके किनारे कितनी ही ऊपर झुण्ड बनाए बैठे थे। एक कथा सुनतीं और सब मिलकर मां अन्नपूर्णा इस प्रकार बार-बार कहती थीं।

यह अघ्न (मार्गशीर्ष) मास की उज़ेली रात्रि थी और आज से ही व्रत का आरम्भ था। जिस शब्द की खोज करके वह निकला था, वह उसे वहां सुनने को मिला।
धनंजय ने उनके पास जाकर पूछा- हे देवियो ! आप यह क्या करते हो?
उन सबने कहा- हम सब माँ अन्नपूर्णा का व्रत करते हैं।

धनंजय ने पूछा- व्रत, पूजा करने से क्या होता है? ये किसी ने भी किया है? यह कब किया जाए? कैसा व्रत है और कैसी विधि है? मुझे भी विस्तार से बताओ।
वे कहे जाते हैं- इस व्रत को सब कोई कर सकते हैं। इक्कीस दिन तक के लिए 21 शॉर्ट्स का सूट लेना चाहिए। 21 दिन यदि आप न हों तो एक दिन का उपवास करें, यह भी न हों तो केवल कथा सुनें प्रसाद लें। निराहार रहकर कथा कहने से, कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्ते को रख सुपारी या घृत कुमारी (ग्वारपाठ) वृक्ष को सामने कर दीपक को साक्षी कर सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव को बिना कथा सुनाए मुख में दाना न डालें। यदि भूल से कुछ पड़ जाए तो एक दिन फिर उपवास करें। व्रत के दिन क्रोध न करें और झूठ न बोलें।

धनंजय बोला- इस व्रत के करने से क्या होगा?
वे बोले- इसके करने से अंधों को नेत्र मिले, लूलों को हाथ मिले, निर्धन के घर धन आए, बांझ को संतान मिले, मूर्ख को विद्या आए, जो जिस कामना से व्रत करे, मां उसकी इच्छा पूरी करती है।
वह कह रही थी- बहिनों! मेरे पास भी धन नहीं है, विद्या नहीं है, कुछ भी तो नहीं है, मैं तो दुखीया ब्राह्मण हूँ, मुझे इस व्रत का सुत दोगी?

हाँ भाई तेरा कल्याण हो, हम इसी तरह मनाएंगे, इस व्रत का मंगलसूत्र ले। धनंजय ने व्रत किया। व्रत पूरा हुआ, तभी सरोवर में से 21 खण्डों की स्वर्ण सीढ़ी हीरा मोती जड़ी हुई। धनंजय जय अन्नपूर्णा अन्नपूर्णा कहता जाता था। इस प्रकार जितनी ही सीढियाँ उतरी गई तो क्या देखा जाता है कि करोड़ों सूर्य से प्रकाशमान अन्नपूर्णा का मन्दिर है, उसके सामने सुवर्ण सिंहासन पर माता अन्नपूर्णा विराजमान हैं। सामने भिक्षा हेतु शंकर भगवान् हैं। देवांगनाएं चंवर दुलाती हैं। कितनी ही हथियार बांधे जाते हैं।

धनंजय धाकड़कर जगदम्बा के चरणों में गिर गया। देवी ने मन का क्लेश जान दिया।
धनंजय कहा लगा- माता! आप तो अन्तर्यामिनी हो। आपको अपना दशा क्या बताएं ?
माता बोली- मेरा व्रत किया है, जा संसार तेरा सतकार करेगा। माता ने धनंजय की जिह्नवा पर बीज मंत्र लिखा। अब तो उसका रोम-रोम में विद्या प्रकट हो गई। इतना तो तय है कि वह काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ी है।

माँ का आशीर्वाद लेकर धनंजय घर आया। सुलक्षणा से सब बात कही। माता जी की कृपा से उसके घर में सम्पत्ति उमड़ने लगी। छोटे सा घर बहुत बड़ा लगता जाने लगा। जैसे शहद के छत्ते में मक्खियाँ जमा होती हैं, उसी प्रकार अनेक सागे सम्बंधी आकर उसे बढ़ाने लगे।
कहने लगे- इतना धन और इतना बड़ा घर, सुन्दर संतान नहीं तो इस कमाई का कौन भोग करेगा? सुलक्षणा से संतान नहीं है, इसलिए तुम दूसरी शादी करो।

असफल होते हुए भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा और सती सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा। इस प्रकार दिन बीतते गए फिर अघन मास आया। नये बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने कहा कि हम व्रत के प्रभाव से सुखी हुए हैं। इस कारण यह व्रत त्यागना नहीं चाहिए। यह माता जी का प्रताप है। जो हम बहुत दुखी और सुखी हैं। सुलक्षणा की बात सुन धनंजय उसके यहां आया और व्रत में बैठ गया।

नए बहू को इस व्रत की खबर नहीं थी। वह धनंजय के आने की राह देख रही थी। दिन बीतते गए और व्रत पूर्ण होने में तीन दिन बाकी थे कि नए बहू को खबर लगी। वह मन में ईर्ष्या की ज्वाला दहक ने लगी थी। सुलक्षणा के घर आ पहुँची ओर उसने वहां भगदड़ मचा दी।

वह धनंजय को अपने साथ ले गई, नये घर में धनंजय को थोड़ी देर के लिए नींद ने आ भरोसा किया। इसी समय नए बहू ने अपने व्रत का सूत तोड़कर आग में फेंक दिया। अब तो माता जी का कोप जाग गया। घर में आग लग गई, सब कुछ जलकर खाक हो गया। सुलक्षणा जान गई और पति को फिर अपने घर ले आई। नई बहू रूठ कर पिता के घर जा बैठी।

पति को भगवान देने वाली सुलक्षणा बोली- नाथ ! घबड़ाना नहीं। माता जी की कृपा अलौकिक है। पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती। अब आप श्रद्धा और भक्ति से आराधना शुरू करो। वे अवश्य हमारा कल्याण करें। धनंजय फिर माता के पीछे पड़ गया। फिर वहीं सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई, उसमें मां अन्नपूर्णा वह उतर गया। वहां जा माता जी के चरणों में रुदन करने लगा।

माता प्रसन्न हो बोलीं- यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले, उसकी पूजा करना, तू फिर सुखी हो जायेगा, जा तू मेरा आशीर्वाद है। तेरी स्त्री सुलक्षणा ने श्रद्धा से मेरा व्रत किया है, उसे मैंने पुत्र दिया है। धनंजय ने दर्जनों खोलियाँ बनाईं तो खुद को काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा किया। वहाँ से फिर उसी प्रकार घर को आया। हे सुलक्षणा के दिन चढ़े और महीनों पूरे होते ही पुत्र का जन्म हुआ। गांव में आश्चर्य की लहर दौड़ गई।

इस प्रकार उसी गांव के निःसंतान सेठ के पुत्र होने पर उसने माता अन्नपूर्णा का मन्दिर बनवाया , उसमें माता जी शुभ से पधारीं, यज्ञ किया और धनंजय को मन्दिर के आचार्य का पद दे दिया। जीविका के लिए मन्दिर की दक्षिणा और रहने के लिए बड़ा सुन्दर सा भवन दिया। धनंजय स्त्री-पुत्र सहित वहां रहे लगा। माता जी की चढ़ाई में भरपूर आमदनी होने लगी। उधर नए बेटे के पिता के घर डाका पड़ा, सब लुट गया, वे भीख मांगकर पेट भरने लगे। सुलक्षणा ने यह सुना तो शिशुओं को बुलाया, अलग घर में रख लिया और उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर दिया।

धनंजय, सुलक्षणा और उनकी पुत्र माता जी की कृपा से आनंद से रहने लगे। माता जी ने जैसे भंडार भरे वैसे सबके भंडार भरें।

ब्लॉग निष्कर्ष:

अन्नपूर्णा माता व्रत कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें जीवन में अन्न और उसके महत्व को भी समझाती है। इस व्रत को करने से हमारे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और हमें हर प्रकार की समृद्धि की प्राप्ति होती है। माता अन्नपूर्णा की कृपा से घर में अन्न-धन की कभी कमी नहीं होती और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है।

इस कथा को सुनने और व्रत को विधिपूर्वक करने से हमारे अंदर विश्वास और धैर्य का संचार होता है। यह व्रत हमें जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में मदद करता है और हमें सच्ची भक्ति की राह पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

माता अन्नपूर्णा की कथा हमें सिखाती है कि हमें सदैव अन्न का सम्मान करना चाहिए और किसी भी प्रकार से अन्न का अपमान नहीं करना चाहिए।

अंततः, अन्नपूर्णा माता व्रत कथा एक अद्वितीय धार्मिक अनुष्ठान है जो हमारे जीवन को हर प्रकार से संपन्न बनाता है। माता की कृपा से हम सभी को अन्नपूर्णा व्रत का संकल्प लेना चाहिए और उनकी महिमा का गुणगान करना चाहिए, जिससे हमारा जीवन सफल और समृद्ध बन सके।

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