अन्नपूर्णा चालीसा, देवी अन्नपूर्णा को समर्पित एक पूजनीय भजन है, जो उनके दिव्य पोषण और आशीर्वाद का उत्सव मनाता है।
हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छंदों के साथ, यह भक्ति मंत्र प्रचुरता और पूर्णता के लिए देवी की कृपा का आह्वान करता है।
आइये अन्नपूर्णा चालीसा के श्लोकों के माध्यम से इसके आध्यात्मिक सार को जानें।
अन्नपूर्णा चालीसा हिंदी में
॥ दोहा ॥
विश्वेश्वर पदपद्म की रज निज शीश लगाय ।
अन्नपूर्णे, तव सुयश बरनौं कवि मतिलाय ।
॥ चौपाई ॥
नित्य आनंद करिणी माता,
वर अरु अभय भाव प्रख्याता ॥
जय ! सौंदर्य सिंधु जग जननी,
अखिल पाप हर भव-भय-हरनी ॥
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि,
संतान तुव पद सेवत ऋषिमुनि ॥
काशी पुराधीश्वरी माता,
माहेश्वरी सकल जग त्राता ॥
वृषभारुढ़ नाम रुद्राणी,
विश्व विहारि जय ! कल्याणी ॥
पतिदेवता सुतीत शिरोमणि,
पदवी प्राप्त कीन्ह गिरि नन्दिनी ॥
पति विछोह दुःख सहि नहिं पावा,
योग अग्नि तब बदन जरावा ॥
देह तजत शिव चरण सनेहू,
राखेहु जात हिमिगिरि गेहु ॥
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो,
अति आनन्द भवन महँ छायो ॥
नारद ने तब तोहिं भरमायाहु,
ब्याह करण हित पाठ पढ्याहु ॥ १०॥
ब्रह्मा वरुण कुबेर गणये,
देवराज आदिक कहि गाये ॥
सब देवन को सुजस बखानी,
मति पलटन की मन महँ थानी ॥
अचल रहो तुम प्राण पर धन्या,
कीहनी सिद्ध हिमाचल कन्या ॥
निज कौन तब नारद लटके,
तब प्राण पूर्ण मंत्र पढाये ॥
करण हेतु तप तोहिं उपदेशेउ,
संत बचन तुम सत्य परेखेहु ॥
गगनगिरा सुनी तारी न तारे,
ब्रह्माँ तब तुव पास पधारे ॥
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा,
देहुँ आज तुव मति अनुरूपा ॥
तुम तो बस अलौकिक भारी,
कष्ट उठायु अति सुकुमारी ॥
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों,
है सौगंध नहीं छल तोसों ॥
करत वेद विद ब्रह्मा जानहु,
वचन मोर यह साँचा मानहु ॥ 20॥
तजि चुप कहहु निज इच्छा,
देहौं मैं दृष्टा भिक्षा ॥
सुनी ब्रह्मा की मधुरी बानी,
मुख सों कछु मुस्कुराय भवानी ॥
बोली तुम का कहहु विधाता,
तुम तो जगके सृष्टाधाता ॥
मम ध्यान गुप्त नहिं तोंसों,
कहवावा चाहु का राक्षसों ॥
दक्ष यज्ञ महँ मरती बारा,
शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा ॥
तो अब मिलहिं मोहिं मनभाये,
कहि तथास्तु विधि धाम सिद्धये ॥
तब गिरिजा शंकर तव भयौ,
फल कामना संशयो गयु ॥
चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा,
तब आनन महँ करत निवासा ॥
माला पुस्तक अंकुश सोहै,
कर महँह ऊपर पाशमन मोहै ॥
अन्न्पूर्णे ! सदापूर्णे,
अज अनवघ अनंत पूर्णे ॥३०॥
कृपा सागरी क्षेमंकररि माँ,
भव विभूति आनंद भरी माँ ॥
कमल विलोचन विलासित भाले,
देवी काले चण्डी कराले ॥
तुम कलास माँहि है गिरिजा,
विलसी आनंद साथ सिंधुजा ॥
स्वर्ग महालक्ष्मी कल्याणी,
मृत्य लोक लक्ष्मी पादपायी ॥
विलसी सब महँ सर्व सरूपा,
सेवत तोहिं अमर पुर भूपा ॥
जो अध्ययनहिं यह तव चालीसा,
फल पाइन्हहि शुभ साखी ईसा ॥
प्रात समय जो जन मन लायो,
पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो ॥
स्त्री कलत्र पति मित्र पुत्र युत,
परमश्र्वर्य लाभ लाहि अद्भुत ॥
राज विमुख को राज दीव्वाय,
जस तेरो जन सुजस बढावै ॥
पाठ महा मुद मंगल दाता,
भक्त मनोवांछित निधि पाता ॥ ४०॥
॥ दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभग,
पढ़ि नवाँगे मठ ।
तिनके कारज सिद्ध सब,
सखी काशी नाथ ॥
अन्नपूर्णा चालीसा अंग्रेजी में
॥दोहा ॥
विश्वेश्वर पदपद्म की राज निज शीश लागे ।
अन्नपूर्णे, तव सुयश बरनाऊं कवि मतिले ।
॥ चौपाई ॥
निति आनंद कारिणी माता,
वर अरु अभय भाव प्रख्याता ॥
जय ! सौन्दर्य सिन्धु जग जननी,
अखिल पाप हर भव-भय-हरणी ॥
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि,
संतान तुव पद सेवत ॥
काशी पुराधीश्वरी माता,
माहेश्वरी सकल जग त्राता ॥
वृषभारूढ़ नाम रुद्राणी,
विश्व विहारिणी जय ! कल्याणी ॥
पतिदेवता सुतीत शिरोमणि,
पदवि प्राप्त कीन्ह गिरि नन्दिनी॥
पति विच्छोह दुःख सहीं नहीं पावा,
योग अग्नि तब बदन जरावा ॥
देह तजत शिव चरण सनेहू,
राखेहु जात हिमागिरि गेहु ॥
प्रकाति गिरिजा नाम धार्यो,
अति आनंद भवन मनः छायो ॥
नारद ने तब तोहिं भरमायाहु,
ब्याह कारण हित पथ पधायाहु ॥ १०॥
ब्रह्मा वरुण कुबेर गणये,
देवराज आदिक कहि गए॥
सब देवन को सुजस बखानी,
माटी पलटन की मन मन ठनी॥
अचल रहिन तुम प्राण पर धन्य,
किहनि सिद्ध हिमाचल कन्या॥
निज कौ तब नारद घबराये,
तब प्राण पूरण मंत्र पढये ॥
कारण हेतु तप तोहिं उपदेशु,
संत बचन तुम सत्य परेखहु ॥
गगनगिरा सुनि तारि ना तारे,
ब्रहाण तब तुव पास पधारे ॥
कहेउ पुत्री वर मांगू अनूपा,
देहूं अज तुव मति अनुरूपा ॥
तुम तप कीन्ह अलौकिक भारी,
कष्ट उठयाहु अति सुकुमारी ॥
अब सन्देह छन्दि कछु मोसोन,
है सौगंध नहीं छल तोसों ॥
करत वेद विद ब्रह्मा जनहु,
वचन मोर यः साँच मनाहु ॥ 20॥
तजि संकोच कहहु निज इच्छा,
देहौं मैं मनमानि भिक्षा ॥
सुनि ब्रह्मा की माधुरी बानी,
मुख सों कछु मुसुके भवानी॥
बोली तुम का कहहु विधाता,
तुम तो जगके श्रेष्ठधाता॥
मम कामना गुप्त नहीं टोनसन,
कहवावा चाहहु का मानसों ॥
दक्ष यज्ञ महान मारति बारा,
शम्भूनाथ पुनि होहिं हमारा॥
सो अब मिलहिं मोहिं मनाभये,
कहि तथास्तु विधि धाम सिद्धये ॥
तब गिरिजा शंकर तव भयउ,
फल कामना संशायो गयु ॥
चंद्रकोटि रवि कोटि प्रकाश,
तब आनन महान करत निवासा ॥
माला पुस्तक अंकुश सोहाई,
कर मनः अपार पाश मन मोहै॥
अन्नपूर्णे ! सदापूर्णे,
अज अनवघ अनंत पूर्णे ॥ ३०॥
कृपा सागरि क्षेमंकरि मन,
भव विभूति आनंद भारी मन ॥
कमल विलोचन विलासित भाले,
देवी कालिके चण्डी कराले ॥
तुम कैलास मनही है गिरिजा,
विलासि आनंद सथ सिंधुजा ॥
स्वर्ग महालक्ष्मी कहालयी,
मार्त लोक लक्ष्मी पदायै ॥
विलासि सब मनः सर्व सरूपा,
सेवत तोहिं अमर पुर भूपा ॥
जो पढिहाहिं यह तव चालीसा,
फल दर्दहि शुभ सखी ईसा ॥
प्रात समय जो जन मन लायो,
पढिहाहिं भक्ति सुरुचि अघिकयो ॥
स्त्री कलत्र पति मित्र पुत्र युत,
परमैश्रवर्य लाभ लहि अद्भुत ॥
राज विमुख को राज दिवावै,
जस तेरो जन सुजस बढावै॥
पथ महा मुद मंगल दाता,
भक्त मनोवांछित निधि पाता ॥ ४०॥
॥दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभाग,
पढी नविंगे मठ ।
तिनके कारज सिद्ध सब,
सखी काशी नाथ ॥
अन्नपूर्णा चालीसा पोषण और प्रचुरता की दिव्य प्रदाता देवी अन्नपूर्णा के प्रति भक्ति और श्रद्धा का सार प्रस्तुत करती है।
इसके छंदों के माध्यम से भक्त देवी से आशीर्वाद और प्रचुरता की कामना करते हैं, तथा उन्हें पूर्णता और समृद्धि की ओर प्रेरित करते हैं।
अन्नपूर्णा चालीसा का नियमित पाठ करने से देवी अन्नपूर्णा का आशीर्वाद और कृपा प्राप्त होती है, जो हमें जीवन के सभी पहलुओं में पोषण और प्रचुरता की ओर मार्गदर्शन करती है।
आइए हम अन्नपूर्णा चालीसा के दिव्य पोषण में डूब जाएं और अपने जीवन में आशीर्वाद और समृद्धि का आह्वान करें।