हिंदू आध्यात्मिकता के ताने-बाने में पवित्र नदियों के प्रति श्रद्धा का बहुत महत्व है। इनमें से गंगा, जिसे अक्सर सबसे पवित्र माना जाता है, सर्वोच्च स्थान रखती है।
श्री गंगा चालीसा, देवी गंगा को समर्पित एक भक्ति भजन है, जो पवित्र नदी की दिव्य कृपा और पवित्रता का उत्सव मनाता है।
इस ब्लॉग में, हम श्री गंगा चालीसा के आध्यात्मिक सार पर चर्चा करेंगे तथा हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में इसके छंदों का अन्वेषण करेंगे।
गंगा चालीसा हिंदी में
॥दोहा॥
जय जय जय जग पावनी,
जयति देवसरि गंग ।
जय शिव जटा निवासिनी,
अनुपम तुंग तरंग ॥
॥चौपाई॥
जय जय जननी हराणा अघखानी ।
आनंद करनी गंगा महात्म्य ॥
जय भागीरथी सुरसरि माता ।
कलिमल मूल डालिनी विख्याता ॥
जय जय जहानु सुता अघ हनानी ।
भीष्म की माता जाग जननी ॥
धवल कमल दल मम तनु सजे ।
लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजाई ॥ ४॥
वहाँ मकर विमल शुचि सोहें ।
अमिया कलश कर लखी मन मोहें ॥
जड़िता रत्ना कंचन आभूषण ।
हिय मणि हर, हरणितम् दूषण ॥
जग पावनी त्रय तप नासवनी ।
तरल तरंग तुंग मन भवानी ॥
जो गणपति अति पूज्य प्रधान ।
इहूँ ते प्रथम गंगा अस्नाना ॥ ८ ॥
ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी ।
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि ॥
साथी सहस्त्र सागर सुत तरयो ।
गंगा सागर तीरथ धरयो ॥
अगम तरंगे छुटकाराो मन भवन ।
लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन॥
तीरथ राज प्रयाग अक्षयवेता ।
धरयो मातु पुनि काशी करवत ॥१२॥
धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीधी ।
तरणी अमिता पितु पड़ पिरही ॥
भागीरथी ताप कियो उपारा ।
दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा ॥
जब जग जननी चल्यो हाहराई ।
शम्भु जाता महान रह्यो समाई ॥
वर्षा पर्यंत गंगा महारानी ।
रहती शम्भू के जाती भुलानी ॥ सोलह ॥
पुनि भागीरथी शम्भुहीं ध्यायो ।
तब इक बूंद जाता से पायो ॥
तटे मातु भें त्रय धारा ।
मृत्यु लोक, नाभा, अरु पातारा ॥
गाला पाताल प्रभावती नामा ।
मन्दाकिनी गई गगन ललामा ॥
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी ।
कलिमल हरनी अगम जग पावनी ॥ २०॥
धनि मइया तब महिमा भारी ।
धर्मं ध्रा काली कलुष कुठारी ॥
मातु प्रभावति धनि मंदाकिनी ।
धनि सुर सरित सकल भयनासिनी ॥
पान करत निर्मल गंगा जल ।
पावत मन चाहे अनंत फल ॥
पूर्व जन्म पुण्य जब जागत ।
तबहिं ध्यान गंगा महँ लागत ॥ ॥
जय पगु सुरसरी हेतु उठवही ।
तै जगि अश्वमेघ फल पावहि ॥
महा पतित जिन कहू न तारे ।
तिन तारे इक नाम तिहरे ॥
शत योजनहु से जो ध्यावहीं ।
निश्चयै विष्णु लोक पद पावहिं ॥
नाम भजत अगणित अघ नाशै ।
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे ॥ २८॥
जिमि धन मूल धर्मं अरु दाना ।
धर्मं मूल गंगाजल पाना ॥
तब गुण गुणन करत दुःख भजत ।
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत ॥
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत ।
दुर्जनहूँ सज्जन पद पावत ॥
उद्दिहिं विद्या बल पावै ।
रोगी रोग मुक्त हवे जावै ॥ ३२॥
गंगा गंगा जो नर कहहीं ।
भूखा नंगा कबहुह न रहहि ॥
निकसत ही मुख गंगा माई ।
श्रवण दाबी यम चलहिं पराई ॥
महँ अघिन अधमन कहं तारे ।
भए नरका के बंद किवारेन ॥
जो नर जपी गंग शत नामा ।
सकल सिद्धि पूर्ण ह्वै काम ॥ ३॥
सब सुख भोग परम पद पावहिं ।
ठंड रहित ह्वै जावहीं ॥
धनि मैया सुरसरि सुख दानी ।
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी ॥
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा ।
सुन्दरदास गंगा कर दासा ॥
जो यह पढ़ता है गंगा चालीसा ।
मिले भक्ति अविरल वागीसा ॥ ॥
॥ दोहा ॥
नित नए सुख सम्पति लहैं, धरें गंगा का ध्यान ।
अन्त समाई सुर पुर बसल, सदर बैठी विमान ॥
संवत भूत नभदिशी, राम जन्म दिवस चैत्र ।
पूरन चालीसा किया, हरि भक्तन हित नेत्र ॥
श्री गंगा चालीसा अंग्रेजी में
दोहा:
जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंगे,
जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंगा
जय जय जननी हरणा अघखानी, आनंद करणी गंगा महारानी
जय भगीरथ सुरसुरी माता, कलिमल मूल दलानी निख्यता
जय जय जहनु सुता अघ हनानी, भीष्म की माता जग जननी
धवल कमल दल मम तनु साजे, लखि षट शरद चन्द्र छवि लाजै
वहां मकर विमल शुचि सोहैं, अमिय कलश कर लखि मन मोहैं
जदिता रत्न कंचन आभूषण, हिया मणि हर, हरणीतम दूषण
जग पावनि त्रय तप नासवनि, तरल तरंग तुंग मन भवानी
जो गणपति अति पूज्य प्रधान, इहुं ते प्रथम गंगा स्नाना
ब्रह्म कमंडल वासिनी देवी, श्री प्रभु पाद पंकज सुख सेवी
साथी सहस्त्र सागर सुत तार्यो, गंगा सागर तीर्थ धार्यो
अगम तरंग उठ्यो मन भवन, लक्खी तीर्थ हरिद्वार सुहावन
तीर्थ राज प्रयाग अक्षैवेता, धर्यो मातु पुनि काशी करवत
धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सिद्धि, तरनि अमिता पितु पद पिरहि
भागीरथी तप कियो ऊपरा, दियो ब्रह्मा तव सुरसरि धरा
जाबा जग जगनि चाल्यो हाहाराई, शम्भू जाता महोण रह्यो समाई
बरषा पर्यन्त गंगा महारानी, रहिन शम्भू के जाता भुलानी
पुनि भागीरथी शम्भुहिं ध्यायो, तब इका बंद जाता से पायो
ताते मातु भैन त्रय धरा, मृत्यु लोक, नभ, अरु पातरा
गेन पाताल प्रभावती, नाम, मंदाकिनी गै गगन लेलामा
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनि, कलिमल हरनि अगम जग पा वाणी
धनि मैया तब महिमा भारी, धर्म धूरि काली कलुष कुठारी
मातु प्रभावती धनि मंदाकिनी, धनि सुर सरित सकल भैणासिनी
पान करत निर्मल गंगा जल, पावत मन इच्छित अनंत फल
पूर्व जन्म पुण्य जाबा जगत, तबहिं ध्यान गंगा महान लगता
जय पगु सुरसरी हेतु उठावहि, तै जगि अश्व मेघा फल पावहि
महा पतित जिन कहु न टारे, तिन टारे इक नाम तिहारे
शत योजनहुँ से जो ध्यावहीं, निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं
नाम भजत अगनित अघ न शाइ, विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशित
जिमि धन मूला धर्म अरु दाना, धर्म मूला गंगा जल पाना
तब गुण गुणन करत दुःख भजत, गृह गृह समापति सुमति विराजत
गंगाहि नेम सहित नित ध्यावत, दुरज नहुँ सज्जन पद पावत
बुद्धिहीन विद्या बल पावै, रोगी रोग मुक्त ह्वै जावै
गंगा गंगा जो नारा कहहिं, भूखा नंगा कबहुं न रहहिं
निकसत हि मुख गंगा माहि, श्रवण दबि यम चलहिं पराई
महान अघिन अधमन कहाँ तारे, भए नरक के बंदे किवारें
जो नर जपै गंगा शत नाम, सकल सिद्धि पूरन ह्वै काम
सब सुख भोग परम पद पावहिर, अवगमन रहित ह्वै जावहीं
धनि मैया सुरसरि सुखदायिनी, धनि धनि तीरथ राज तिनिवेणी
काकर ग्राम ऋषि दुर्वासा, सुन्दरदास गंग कर दासा
जो यह पढ़े गंगा चालीसा, मिलै भक्ति अविरल वागीसा
दोहा:
नित नय सुख सम्पति इहैं, धरेन गंगा का ध्यान
अन्ता समाई सुर पुर बसै, सादर बैठी विमान
संवत भुज नभदिशी, राम जन्म दिन चैत्र
पूरन चालीसा किया, हरि भक्तन हित नैत्र।