Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 29(कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29)

कार्तिक मास भारतीय सनातन धर्म में अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है। यह मास विशेष रूप से भगवान विष्णु की आराधना के लिए समर्पित है और इस मास में की जाने वाली पूजा, उपवास और दान के विशेष फल की मान्यता है।

"कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29" एक ऐसी धार्मिक कथा है जो कार्तिक मास के महत्व और इस मास में किए जाने वाले धार्मिक कृत्यों के फल को विस्तृत रूप से वर्णित करती है।

अध्याय 29 में वर्णित कथा में भगवान विष्णु की महिमा, उनकी लीलाओं और भक्तों पर उनकी कृपा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस अध्याय में वर्णित घटनाएं और प्रसंग धार्मिक आस्था को और भी मजबूत बनाते हैं और यह बताते हैं कि कैसे कार्तिक मास में की गई पूजा-अर्चना और उपवास व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।

इस कथा में एक प्रमुख संदेश यह है कि कार्तिक मास में किए गए धार्मिक अनुष्ठान व्यक्ति को न केवल भौतिक सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी प्रदान करते हैं।

इस मास की कथा में उल्लेख है कि इस अवधि में भगवान विष्णु स्वयं पृथ्वी पर उपस्थित होते हैं और अपने भक्तों की प्रार्थनाओं को सुनते हैं।

यह भी बताया गया है कि इस मास में गंगा स्नान, दीपदान और तुलसी पूजा का विशेष महत्व है। अध्याय 29 में भगवान विष्णु की विभिन्न कथाओं का संकलन है जो यह सिद्ध करता है कि वे अपने भक्तों की हर प्रकार की कठिनाइयों का निवारण करते हैं और उन्हें मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं।

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29

राजा पृथु ने कहा - हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाये जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए।

नारद जी बोले - हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है। इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो..

चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया। वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गये। महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया। वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी। इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा - हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा।

इस पर भगवान विष्णु बोले - यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिएगा। क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती?

नारदजी ने कहा - हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया। यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दीक्षा विधान आरंभ कर दिया। जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगा, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची।

ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर त्वरा बोली - जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं। यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी। आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होगें।

नारदजी राजा पृथु से बोले - हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी। देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया।
गायत्री बोली - त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं। तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ तब देवताओं में खलबली मच गई।
सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले - हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रुप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे। चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापिस ले लो।

त्वरा बोली - हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किये जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्यमेव नदियाँ बनोगे। हम दोनों सौतने भी अपने-अपने वंशों पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेगी।

नारदजी राजा पृथु से बोले - हे राजन! त्वरा के यह वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गये। भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गई। 
समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया। फिर उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे। देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गई। गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगी, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा।

ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की स्थापना की। दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनायेगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।

निष्कर्ष:

कार्तिक मास की महिमा और इसके धार्मिक अनुष्ठानों की महत्ता को "कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29" में बहुत ही सुन्दर और विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। इस कथा के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि भगवान विष्णु अपने भक्तों के प्रति कितने कृपालु और दयालु हैं। कार्तिक मास में उनकी आराधना करने से भक्तों को जो लाभ प्राप्त होते हैं, वे न केवल उनके सांसारिक जीवन को सुखमय बनाते हैं, बल्कि उन्हें आध्यात्मिक शांति और मोक्ष की ओर भी अग्रसर करते हैं।

अध्याय 29 में दी गई कहानियाँ और प्रसंग यह सिखाते हैं कि निष्ठा और भक्ति के साथ किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ नहीं जाता। इस मास में किए गए उपवास, स्नान और पूजा के विशेष फल की मान्यता धार्मिक आस्था को और भी प्रबल बनाती है। भक्तों को यह विश्वास होता है कि कार्तिक मास में भगवान विष्णु की आराधना से वे अपने जीवन की सभी समस्याओं से मुक्त हो सकते हैं और भगवान की कृपा से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्रकार, "कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 29" का अध्ययन और श्रवण हर भक्त को एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है। यह अध्याय न केवल धार्मिक कथा का वर्णन करता है, बल्कि एक जीवन दर्शन प्रस्तुत करता है जो प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। यह कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति और विश्वास के साथ किया गया हर कार्य परमात्मा की कृपा प्राप्त करने का साधन बन सकता है।

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