Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 16(कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 16)

कार्तिक मास हिंदू धर्म में विशेष महत्त्व रखता है और इस मास में किए गए धार्मिक अनुष्ठान एवं व्रत का विशेष फल प्राप्त होता है।

कार्तिक मास माहात्म्य कथा का अध्ययन करते समय हम अध्याय 16 पर विशेष ध्यान देंगे, जो इस मास की महिमा और उसमें किए गए कर्मों की महानता को उजागर करता है। इस अध्याय में भगवान विष्णु की कृपा से जुड़े अनेक प्रसंग और पवित्र कथाएं सम्मिलित हैं। इस कथा के माध्यम से धार्मिक अनुयायियों को धर्म, सदाचार, और आध्यात्मिकता की गहरी समझ प्राप्त होती है।

कार्तिक मास में दीपदान, तुलसी पूजा, और श्रीहरि की आराधना को अत्यधिक शुभ माना गया है। इस मास में ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करना और भगवान का स्मरण करना अत्यंत पुण्यकारी होता है। अध्याय 16 में यह भी वर्णित है कि कैसे इस मास में किए गए छोटे-छोटे कार्य भी बड़े परिणाम देते हैं और भक्त को मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं।

अध्याय 16 में विभिन्न कथाओं और घटनाओं के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि कार्तिक मास में उपवास और धार्मिक कृत्य करने से जीवन में शांति, समृद्धि और सद्गुणों की वृद्धि होती है। इस मास की पूजा-अर्चना से व्यक्ति अपने पापों से मुक्त हो जाता है और उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 16

सुनो लगाकर मन सभी,
संकट सब मिट जायें ।
कार्तिक माहात्म का `कमल`,
पढो़ सोलहवां अध्याय ॥
राजा पृथु ने कहा: हे नारद जी! ये तो आपने भगवान शिव की बडी़ विचित्र कथा सुनाई है। अब कृपा करके आप यह बताइये कि उस समय राहु उस पुरूष से छूटकर कहां गया?

नारद जी बोले उससे छूटने पर वह दूत बर्बर नाम से विख्यात हो गया और अपना नया जन्म पाकर वह धीरे-धीरे जलन्धर के पास गया। वहां जाकर उसने शंकर की सब चेष्टा कही। उसे सुनकर दैत्यराज ने सब दैत्यों को सेना द्वारा आज्ञा दी। कालनेमि और शुम्भ-निशुम्भ आदि सभी महाबली दैत्य तैयार होने लगे। एक से एक महाबली दैत्य करोडों-करोडों की संख्या में निकल युद्ध के लिए जुट पड़े। महा प्रतापी सिन्धु पुत्र शिवजी से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा। आकाश में मेघ छा गये और बहुत अपशकुन होने लगे। शुक्राचार्य और कटे सिर वाला राहु सामने आ गये। उसी समय जलंधर का मुकुट खिसक गया, परंतु वह नहीं रूका।

उधर इन्द्रादिक सब देवताओं ने कैलाश पर शिवजी के पास पहुंच कर सब वृतांत सुनाया और यह भी कहा कि आपने जलंधर से युद्ध करने के लिए भगवान विष्णु को भेजा था। वह उसके वशवर्ती हो गये हैं और विष्णु जी लक्ष्मी सहित जलंधर के अधीन हो उनके घर में निवास करते हैं। अब देवताओं को भी वहीं रहना पड़ता है। अब वह बली सागर पुत्र आपसे युद्ध करने आ रहा है। अतएव आप उसे मारकर हम सबकी रक्षा कीजिये।

यह सुनकर शंकरजी ने विष्णु जी को बुलाकर पूछा हे ऋषिकेश! युद्ध में आपने जलंधर का संहार क्यों नहीं किया और बैकुण्ठ छोड़ आप उसके घर में कैसे चले गये?

यह सुन कर विष्णुजी ने हाथ जोड़ कर नम्रतापूर्वक भगवान शंकर से कहा: उसे आपका अंशी ओर लक्ष्मी का भ्राता होने के कारण ही मैने नहीं मारा है। यह बड़ा वीर और देवताओं से अजय है। इसी पर मुग्ध होकर मैं उसके घर में निवास करने लगा हूं।

विष्णु जी के इन वचनों को सुनकर शंकर जी हंस पड़े उन्होंने कहा: हे विष्णु! आप यह क्या कहते हैं! मैं उस दैत्य जलंधर को अवश्य मारूंगा अब आप सभी देवता जलंधर को मेरे द्वारा ही मारा गया जान अपने स्थान को जाइये।

जब शंकर जी ने ऎसा कहा तो सब देवता सन्देह रहित होकर अपने स्थान को चले गये। इसी समय पराक्रमी जलंधर अपनी विशाल सेना के साथ पर्वत के समीप आ कैलाश को घोर सिंहनाद करने लगा। दैत्यों के नाद और कोलाहल को सुनकर शिवजी ने नंदी आदि गणों को उससे युद्ध करने की आज्ञा प्रदान की, कैलाश के समीप भीषण युद्ध होने लगा। दैत्य अनेकों प्रकार के अस्त्र शस्त्र बरसाने लगे, भेरि, मृदंग, शंख और वीरों तथा हाथी, घोडों और रथों के शब्दों से शाब्दित हो पृथ्वी कांपने लगी। युद्ध में कटकर मरे हुए हाथी, घोड़े और पैदलों का पहाड़ लग गया। रक्त-मांस का कीचड़ उत्पन्न हो गया।

दैत्यों के आचार्य शुक्रजी अपनी मृत संजीवनी विद्या से सब दैत्यों को जिलाने लगे। यह देखकर शिव जी के गण व्याकुल हो गये और उनके पास जाकर सारा वृतांत सुनाया, उसे सुनकर भगवान रूद्र के क्रोध की सीमा न रही। फिर तो उस समय उनके मुख से एक बड़ी भयंकर कृत्या उत्पन्न हुई, जिसकी दोनों जंघाएं तालवृक्ष के समान थीं । वह युद्ध भूमि में जा सब असुरों का चवर्ण करने लग गयी और फिर वह शुक्राचार्य के समीप पहुंची और शीघ्र ही अपनी योनी में गुप्त कर लिया फिर स्वयं भी अन्तर्धान हो गयी।

शुक्राचार्य के गुप्त हो जाने से दैत्यों का मुख मलिन पड़ गया और वे युद्धभूमि को छोड़ भागे इस पर शुम्भ निशुम्भ और कालनेमि आदि सेनापतियों ने अपने भागते हुए वीरों को रोका। शिवजी के नन्दी आदि गणों ने भी, जिसमें गणेश और स्वामी कार्तिकेयजी भी थे, दैत्यों से भीष्ण युद्ध करना आरंभ कर दिया।

निष्कर्ष

कार्तिक मास माहात्म्य कथा का अध्याय 16 धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस अध्याय में वर्णित कथाएं और उपदेश हमें यह सिखाते हैं कि कैसे धर्म और भक्ति के मार्ग पर चलते हुए जीवन के संपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। भगवान विष्णु की आराधना और कार्तिक मास के व्रत से न केवल व्यक्ति के जीवन में शांति और सुख की प्राप्ति होती है, बल्कि उसे मोक्ष का मार्ग भी सुलभ हो जाता है।

इस अध्याय के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि कार्तिक मास में किए गए छोटे-छोटे धार्मिक अनुष्ठान भी कितने प्रभावशाली हो सकते हैं। यह मास हमें यह प्रेरणा देता है कि हम अपने जीवन में सादगी, सत्य, और धर्म का पालन करें। कार्तिक मास की महिमा को समझते हुए और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करते हुए, हम अपने जीवन को श्रेष्ठ और सार्थक बना सकते हैं।

अध्याय 16 का यह महत्वपूर्ण सन्देश है कि धर्म और भक्ति के मार्ग पर चलकर हम अपने सभी कष्टों और पापों से मुक्ति पा सकते हैं। यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि ईश्वर की आराधना और धार्मिक कृत्यों का हमारे जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है। इस अध्याय के माध्यम से हम यह समझ सकते हैं कि कार्तिक मास में की गई पूजा और उपवास से हमें कितनी असीम कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार, कार्तिक मास माहात्म्य कथा का अध्याय 16 हमें धार्मिकता, भक्ति, और सदाचार की महत्वता को समझने का अवसर प्रदान करता है। इस अध्याय का अध्ययन कर हम अपने जीवन को धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकते हैं, और भगवान विष्णु की अनंत कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

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