भारतीय संस्कृति की अमूल्य धारा में, धर्म और परंपराओं का अद्वितीय मेल मिलाप देखने को मिलता है। इस अनोखे संगम का उत्सव है "गंगा दशहरा"।
यह पर्व गंगा नदी के महत्व को मानने का उत्कृष्ट अवसर है और इसे मनाने का एक उत्कृष्ट तरीका है। इस लेख में, हम गंगा दशहरा के पर्व की कहानी को समझेंगे, जो हमें इस पवित्र समय की महत्ता और धार्मिक अर्थ को समझाती है।
गंगा दशहरा का उत्सव भारत में विशेष रूप से उत्तर भारत के प्रदेशों में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व गंगा माता के पावन जल को समर्पित है, जिसका महत्व धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में है।
गंगा नदी को धरती माता की रूप में पूजा जाता है और इसे मोक्षदायिनी कहा जाता है। इस पर्व के दौरान, लोग नदी के किनारे जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
गंगा दशहरा कथा
गरुड़ के द्वारा इस घटना की जानकारी मिलने पर अंशुमान् कपिलमुनि के आश्रममें आये तथा उनकी स्तुति की। कपिल मुनि उनके विनय से प्रसन्न होकर बोले- अंशुमन्! घोड़ा ले जाओ और अपने पितामहका यज्ञ पूरा कराओ। ये सगरपुत्र उद्दण्ड, अहंकारी और अधार्मिक थे, इनकी मुक्ति तभी हो सकती है जब गङ्गाजल से इनकी राख का स्पर्श हो।
अंशुमान् ने घोड़ा ले जाकर अपने पितामह महाराज सगर का यज्ञ पूरा कराया। महाराज सगरके बाद अंशुमान् राजा बने, परंतु उन्हें अपने चाचाओं की मुक्ति की चिन्ता बनी रही। कुछ समय बाद अपने पुत्र दिलीप को राज्य का कार्यभार सौंपकर वे वन में चले गये तथा गङ्गाजी को स्वर्ग से पृथ्वीपर लाने के लिये तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका शरीरान्त भी हो गया।
महाराज दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्यभार देकर स्वयं पिता के मार्गका अनुसरण किया। उनका भी तपस्यामें ही शरीरान्त हुआ, परंतु वे भी गङ्गाजी को पृथ्वीपर न ला सके। महाराज दिलीप के बाद भगीरथ ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। अन्त में तीन पीढ़ियों की इस तपस्या से प्रसन्न हो पितामह ब्रह्माने भगीरथ को दर्शन देकर वर माँगने को कहा।
भगीरथने कहा- हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिलमुनि के शाप से भस्म हो गये हैं, उनकी मुक्ति के लिये आप गङ्गाजी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।
ब्रह्माजीने कहा - मैं गङ्गाजी को पृथ्वीलोक पर भेज तो अवश्य दूँगा, परंतु उनके वेग को कौन रोकेगा, इसके लिये तुम्हें देवाधिदेव भगवान् शंकर की आराधना करनी चाहिये।
भगीरथने एक पैर पर खड़े होकर भगवान् शंकरकी आराधना शुरू कर दी। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने गङ्गाजी को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटाको पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गङ्गाजी पृथ्वी की ओर चलीं। अब आगे-आगे राजा भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गङ्गाजी थीं।
मार्ग में जहुऋषि का आश्रम पड़ा, गङ्गाजी उनके कमण्डलु, दण्ड आदि बहाते हुए जाने लगीं। यह देख ऋषिने उन्हें पी लिया। कुछ दूर जानेपर भगीरथने पीछे मुड़कर देखा तो गङ्गाजी को न देख वे ऋषिके आश्रम पर आकर उनकी वन्दना करने लगे। प्रसन्न हो ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गङ्गाजी को दाहिने कान से निकाल दिया। इसलिये देवी गङ्गा जाह्नवी नामसे भी जानी जाती हैं। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होनेके कारण उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है।
इसके बाद भगवती भागीरथी गङ्गाजी मार्गको हरा-भरा शस्य-श्यामल करते हुए कपिलमुनि के आश्रम में पहुँचीं, जहाँ महाराज भगीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढेरी बने पड़े थे। गङ्गाजलके स्पर्श मात्र से वे सभी दिव्यरूप धारी हो दिव्य लोकों को चले गये।