भारत, अपनी सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ के हर कोने में अनगिनत धार्मिक स्थल और मंदिर मिलते हैं, जो अनादिकाल से श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करते आए हैं। इन्हीं पवित्र स्थलों में से एक है बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, जो झारखंड के देवघर में स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग का वर्णन विभिन्न पुराणों में मिलता है और इसकी उत्पत्ति की कहानी बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक है।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पौराणिक कथा भगवान शिव और उनके परम भक्त रावण से जुड़ी हुई है। कहते हैं कि रावण ने जब भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी, तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का वरदान दिया।
इस पौराणिक कथा में भक्ति, तपस्या, और भगवान शिव के दिव्य चमत्कारों का सुंदर वर्णन है। यह कथा केवल धार्मिक महत्व ही नहीं रखती, बल्कि भारतीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक भी है।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग प्रादुर्भाव पौराणिक कथा
जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में चिताभूमि में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया।
कोटि रुद्र संहिता के अनुसार कथा
श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है। कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो
प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम् ।
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत: ॥
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स: ।
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत: ॥
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया ।
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम् ॥
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै ।
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू ॥
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई।
जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया। उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया-
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै ।
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम् ॥
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा ।
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला: ॥
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने ।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत: ॥
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा: ।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा - नत्वा दिवं ययु: ॥
इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
निष्कर्ष
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पौराणिक कथा हमें यह सिखाती है कि श्रद्धा और भक्ति में अत्यंत शक्ति होती है। रावण की कठिन तपस्या और उसकी अटूट भक्ति ने भगवान शिव को प्रसन्न कर दिया और उन्होंने रावण को अपना आशीर्वाद दिया। इस कथा से यह भी स्पष्ट होता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की सच्ची भक्ति को कभी निराश नहीं करते।
यह कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसे जीवन में आस्था, समर्पण और मेहनत के महत्व को भी समझने के लिए पढ़ा जा सकता है। बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग आज भी लाखों श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है, जहां लोग अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं।
इस कथा के माध्यम से हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएं, अगर हमारी आस्था मजबूत हो तो हम किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार, बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पौराणिक कथा भारतीय संस्कृति और धर्म का एक अनमोल हिस्सा है, जो हमें जीवन में सच्चे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। इस पवित्र स्थल का दर्शन करना और इसकी कथा को आत्मसात करना हर व्यक्ति के लिए एक अद्वितीय अनुभव हो सकता है।