वैशाख संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा(वैशाख संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा) हिंदी में

वैशाख संकष्टी गणेश चतुर्थी का व्रत हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है। यह व्रत भगवान गणेश को समर्पित है, जो विघ्नहर्ता और बुद्धि, समृद्धि के देवता माने जाते हैं। संकष्टी चतुर्थी हर महीने की चौथी तिथि को मनाई जाती है, लेकिन वैशाख महीने की संकष्टी चतुर्थी का अपना ही विशेष स्थान है।

इस दिन भगवान गणेश की पूजा अर्चना कर भक्त उनसे अपने जीवन की समस्त समस्याओं का निवारण और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। व्रत करने वाले भक्त उपवास रखते हैं और विशेष कथा सुनते हैं जो इस दिन की महत्ता को बढ़ाती है।

इस व्रत का पालन करने वाले भक्त प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने पूजन की तैयारी करते हैं। गणेश जी की विधिवत पूजा के बाद व्रत कथा का श्रवण किया जाता है।

इस कथा में गणेश जी की लीलाओं और उनकी महिमा का वर्णन किया गया है, जिससे भक्तों को प्रेरणा और शक्ति मिलती है। इस व्रत को करने से व्यक्ति के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है और सभी प्रकार के विघ्न और संतुष्टि दूर होती हैं।

वैशाख संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा

एक बार पार्वती जी ने गणेशजी से पूछा कि वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की जो संकटा नामक चतुर्थी कही गई है, उस दिन गणेश का किस विधि से पूजन करना चाहिए एवं उस दिन भोजन में क्या ग्रहण करना चाहिए?
गणेश जी ने उत्तर दिया - हे माता! बैशाख कृष्ण चतुर्थी के दिन व्रकटुंड गणेश व्रत की पूजा करनी चाहिए। तथा भोजन में कमलगट्टे का हलवा लेना चाहिए। हे जननी! द्वापर युग में राजा युधिष्ठिर ने यह प्रश्न पूछा था और उसके उत्तर में भगवान श्री कृष्ण ने जो कहा, मैं उसी इतिहास का वर्णन करता हूँ। आप श्रद्धायुक्त सुनें।
भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे राजन! इस कल्याण दात्री चतुर्थी का जिसने व्रत किया और उसे जो फल प्राप्त हुआ, मैं उसे ही अर्पित कह रहा हूँ।

प्राचीन काल में एक रंतिदेव स्वामीप्रतापी राजा हुए। जिस प्रकार आग तृण ब्रह्मा को जलाया जाता है उसी प्रकार वे अपने शत्रुओं के विनाशक होते हैं। उनकी मित्रता यम, कुबेर, इन्द्रादिक देवों से थी। देश के राज्य में धर्मकेतु नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनकी दो स्त्रियाँ थीं, एक का नाम कुशा और दूसरे का नाम चंकला था। सुशीला नित्य ही कोई न कोई व्रत करती थी। फलतः उसने अपने शरीर को दुर्बल बना डाला था। इसके विपरीत चंला कभी भी कोई व्रत-उपवास आदि न करके भरपेट भोजन करती थी।

इधर सुशीला को सुन्दर लक्षणों वाली एक कन्या हुई और उधर चंचा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । यह देखकर चंचा बारम्बर सुशीला को ताना देने लगी।

अरे सुशीला! तूने इतना व्रत उपवास करके शरीर को भुला दिया, फिर भी एक कृषकाय कन्या को जन्म दिया। मुझे देखो, मैं कभी व्रतादि के चक्कर में न पड़कर हष्ट-पुष्ट बनी हुई हूँ और वैसे ही लड़के को भी जन्म दिया है।

अपनी सौत का विचित्र बाण सुशीला के दिल में चुभने लगा। वह पतिव्रता विधिवत गणेशजी की उपासना करने लगी। जब सुशीला ने भक्तिभाव से संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत किया तब रात्रि में वरदहस्त गणेशजी ने उन्हें दर्शन दिये।

श्री गणेशजी ने कहा - हे सुशीले! तेरी आराधना से हम अत्यधिक प्रभावित हैं। मैं अतः मानता हूँ कि तेरी कन्या के मुख से निरंतर मोती और मूंगा प्रवाहित होते रहेंगे। हे कल्याणी! इससे तू सदा प्रसन्नता रहेगी। हे मूर्ख! वेद शास्त्र वेत्ता एक पुत्र भी होगा। इस प्रकार का निषेध करके गणेश जी वहां से अन्तरध्यान हो गए।

धन्य प्राप्ति के फलस्वरूप उस कन्या के मुंह से सदा मोती और मगन झड़ने लगे। कुछ दिनों के बाद सुशीला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। तदन्नन्तर धर्मकेतु का स्वर्गवास हो गया । उनकी मृत्यु के बाद सुशीला घर का सारा धन लेकर दूसरे घर में रहने लगी, परन्तु सुशीला पतिगृह में रहकर ही पुत्र और पुत्री का पालन-पोषण करने लगी।

अपनी कन्या के मुंह से मोती मूंगा गिरने के फलस्वरूप सुशीला के पास अल्प समय में ही बहुत सा धन इकट्ठा हो गया। इस कारण वह उससे ईर्ष्या करने लगी। एक दिन हत्या करने के उद्देश्य से चंचा ने सुशीला की कन्या को कुएँ में ढकल दिया। उस कुएँ में गणेशजी ने अपनी रक्षा की और वह कन्या कुशल अपनी माता के पास लौट आईं। उन लड़कियों की जीवित देखकर चंचला का मन उद्दिग्न हो उठा। वह सोचती है कि भगवान की रक्षा कौन करता है, उसे कौन मार सकता है? इधर सुशीला अपनी पुत्री को पुनः प्राप्त कर प्रसन्न हो गई।
उसने कहा - पुत्री को छाती से लगाकर - श्री गणेश जी ने तुम्हें फिर जीवन दिया है। अनाथों के नाथ गणेश जी ही हैं। चंला आकर उसके पैरों में नटमसतक हुई। उसे देखकर सुशीला के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

चंचल हाथ जोड़कर बोली - हे बहिन सुशीले! मैं बहुत ही पापिन और बुरा हूँ। आप मेरे अपराध को क्षमा करें। आप दयावती हैं, आपने दोनों कुलों का उद्दार कर दिया। उसका रक्षक देवता होता है उसका मनुष्य क्या स्वरूप हो सकता है? जो लोग संतों एवं सत्पुरुषों के दोष होते हैं, वे अपनी करनी से स्वयं नाश को प्राप्त होते हैं। इसके बाद चंखला ने भी उस कष्ट निवारक पुण्यप्रद संकट नाशक गणेशजी के व्रत को किया। श्री गणेश जी की कृपा से उन दोनों में प्रेम भाव स्थापित हो गया। जिस पर गणेशजी की कृपा होती है उसके शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। सुशीला के द्वारा संकट नाश करने वाले गणेश चतुर्थी व्रत के कारण ही उसके सौत चंचल का हृदय परिवर्तन हो गया।

श्री गणेश जी कहते हैं कि हे देवी! पूर्वकाल का पूरा वृत्तांत आपको सुना दिया। इस लोक में इससे श्रेष्ठ विघ्नविनाशक कोई दूसरा व्रत नहीं है।

भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे धर्मराज! आप भी विधिपूर्वक गणेश जी का व्रत करें। ऐसा करने से आपके शत्रुओं का नाश होगा तथा अष्टसिद्धियाँ और नवनिधियाँ आपके सामने घटित होंगी। हे धर्मपरायण! युधिष्ठिर! आप अपने भाइयों, धर्मपत्नियों और माता के साथ इस व्रत को अवश्य करें। इससे शीघ्र ही आप अपने राज्य को प्राप्त कर लेंगे।

निष्कर्ष:

वैशाख संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह मानसिक और आध्यात्मिक शांति प्रदान करने का भी साधन है। भगवान गणेश की कृपा से जीवन के सभी संकट दूर होते हैं और नई ऊर्जा और सकारात्मकता का संचार होता है।

इस व्रत के माध्यम से भक्त भगवान गणेश की महिमा का गुणगान करते हैं और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को सुखमय और समृद्धिशाली बनाने की कामना करते हैं। इसलिए, इस पावन दिवस पर गणेश जी की विधिपूर्वक पूजा और व्रत का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण और लाभकारी माना जाता है।

जो भक्त सच्चे मन से इस व्रत का पालन करते हैं, उन्हें निश्चित ही भगवान गणेश की कृपा प्राप्त होती है और उनके जीवन में सभी विघ्नों का नाश होता है।

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