शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा(शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा)

संतोषी माता का व्रत हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है। शुक्रवार को किया जाने वाला यह व्रत संतोषी माता की पूजा और उनकी प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए रखा जाता है। संतोषी माता को संतोष और सुख की देवी माना जाता है, जो अपने भक्तों के कष्टों का निवारण कर उन्हें सुख-शांति प्रदान करती हैं।

इस व्रत को विशेष रूप से महिलाएं करती हैं, लेकिन पुरुष भी इसे रख सकते हैं। संतोषी माता व्रत कथा के माध्यम से भक्तजन माता की महिमा और उनके चमत्कारों को जानने का प्रयास करते हैं। इस व्रत कथा को सुनने और पढ़ने से मन की शांति और परिवार में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

संतोषी माता व्रत कथा के पीछे की कहानी बहुत ही प्रेरणा और आस्था से भरी हुई है। यह कथा एक साधारण परिवार की महिला की है, जिसने अपनी सच्ची श्रद्धा और विश्वास के बल पर संतोषी माता को प्रसन्न किया और अपने जीवन में सुख-शांति और समृद्धि लाई।

कथा का मुख्य संदेश यही है कि यदि कोई भी भक्त संतोषी माता की आराधना करता है, तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा

एक बुधिया थी, उसके सात बेटे थे। 6 कमाने वाले थे जबकि एक निष्कम्मा था। बुधिया छह बेटों की रसोई बनाती है, भोजन कराती है और उन्हें जो कुछ जूठन बचाकर रखती है वह सातवें को देती है।

एक दिन वह पत्नी से बोला- देखो मेरी माँ को मुझसे कितना प्यार है।
वह बोली- क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुम्हें खिलाती है।
वह बोला- ऐसा नहीं हो सकता। मैं जब तक आँखों से न देख लूँ मान नहीं सकता।
बहू हंस कर बोली- देख लोगे तब तो मानोगे।

कुछ दिन बाद त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह जांचने के लिए सिर दुखाने का तरीका अपनाकर पतले वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गई। वह कपड़े में से सब देख रहा। छहों भाई भोजन करने आएं। उसने देखा, माँ ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछाकर नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जमाया। वह देखता रहा।

छहों भोजन करके उठते हुए, तब माँ ने अपनी फुलझड़ी में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया।
जूठन साफ ​​कर बुधिया माँ ने उसे बुलाया- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा।
उसने कहा- माँ मुझे खाना नहीं करना, मैं अब परदेश जा रहा हूँ।
माँ ने कहा- कल जाएगा तो आज चलेगा।
वह बोला- हाँ आज ही जा रहा हूँ। यह कह कर वह घर से निकल गया।

सातवें बेटे का परदेश जाना-
चलते समय पत्नी की याद आ गई। वह गौशाला में कंडे (उपले) थाप रही थी।
वहाँ जाकर बोला-
हम जावे परदेश आवेंगे कुछ काल,
तुम रहियो संतोष से धर्म अपने पाल।

वह बोली-
जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय,
राम शेष हम रहें ईश्वर सहायक।
दो निशानी अपने देख धरूं में धीर,
सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गंभीर।


वह बोला- मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे।
वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश चला।

प्रदेश मे नौकरी-
वहाँ एक साहूकार की दुकान थी। वहाँ जाकर कहा लगा- भाई मुझे नौकरी पर रख लो।
साहूकार को जरूरत थी, बोला- रह जा।
लड़के ने पूछा- तन्खा क्या दोगे।
साहूकार ने कहा- काम देख कर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह 7 बजे से 10 बजे तक नौकरी करती लगी। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, अफसोस-किताब, ग्राहकों को माल बेचने का सारा काम करने लगा। साहूकार के सात आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया।

सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे म्यूजिक का हिस्सा बना लिया। वह कुछ साल में ही नामी सेठ बन गई और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़ दिया गया।

पति की अनुपस्थिति में सास का अत्याचार-
इधर उसकी पत्नी को सास ससुर दु:ख देने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में चले गए। इस बीच घर के एते से जो भूसी उतरती है उसकी रोटी बनाई रखी जाती है और फूटे नारियल की नारेली पानी में। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं।

संतोषी माता का व्रत-
वह वहाँ खड़ी कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस भगवान का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है। यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगे तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी।

तब उनसे एक स्त्री बोली सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और जो कुछ मन में कामना हो, सब संतोषी माता की कृपा से पूर्ण होती है। तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी।

संतोषी माता व्रत विधि-
वह भक्तिनि स्त्री बोली- सावा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सावा पांच आने का लेना या सावा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लाना। बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से भी बने रहें। प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनते हुए, इसके बीच क्रम फूट नहीं पड़ता, निरंतर नियम का पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो धी का दीपक जलाए आगे या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना। जब कार्य सिद्ध न हो नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्देश्य पालन करना।

तीन मास में माता फल पूर्ण करती है। यदि किसी के ग्रह खोए भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर उद्देश्यण करना बीच में नहीं होना चाहिए। उद्यम में अधेई सेर बने का खाजा तथा इसी परिधि से खीर तथा चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन करना, जहाँ तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदार और पास-पड़ोसियों को बुलाना। उन्हें भोजन कराकर यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में खाना नहीं खाया। यह सुन बुधिया के लड़के की बहू चल दी।

व्रत का प्रणाम करना और माँ संतोषी का दर्शन देना-
रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन परेशानियों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर लगी- यह मंदिर किसका है।
सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनी माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी।
दीन हो विनती करने लगी- माँ मैं निद्रा अज्ञानी हूँ, व्रत के कुछ भी नियम नहीं रखती, मैं दु:खी हूँ। हे माता ! जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूँ।

माता को दया आई- एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ गया। यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोड़ने लगे।
लड़के ताने देने लगे- काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की ख़ुशी।
सस्तीरी सरलता से शिकायतें- भैया कागज आवे रुपया आवे हम सबके लिए अच्छा है। ऐसा कह कर आँखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी। माँ मैंने पैसे कब माँगा है।

मुझे पैसे से क्या काम है। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शनप्राप्ति करती हूँ। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- जा बेटी, तेरा स्वामी आएगा।

यह सुनकर खुशी से बावली उठकर घर में जा काम करने लगी। अब संतोषी माँ के बारे में सोचने लगी, इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आएगा लेकिन कैसे? वह तो इसे सपने में भी याद नहीं करता।

उसे याद करो मुझे ही जाना पड़ेगा। इस तरह माता जी उस बुधिया के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहती हुई लगी- साहूकार का बेटा, सो रहा है या जागता है।
वह कहती रही- माता सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूँ कहो क्या आज्ञा है?
माँ कहने लगी- तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं।
वह बोला- मेरे पास सब कुछ है माँ-बाप है बहू है क्या कमी है।
माँ बोली- भोले बेटा तेरा बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे माँ-बाप उसे कष्ट दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसे सुध ले।
वह बोला- हाँ माता जी यह तो ख़त्म है, लेकिन जाऊँ तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई मिसअली नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चले जाऊं?
माँ कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ।

देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा , जमा का माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा। अबुग्गी की बात मानकर वह नहा धोकर संतोषी माता को दण्डवत धी का दीपक जलाकर दुकान पर बैठा था। थोड़ी देर में देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले बेरोजगार लेने लगे। कोठे में भरे सामान के खरीदार कैश दाम दे सौदा करने लगे। शाम तक धन का भारी ठिकाना लग गया। मन में माता का नाम ले चमत्कार देख प्रसन्न हो घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा सामान खरीद लगा। यहाँ काम से निष्कर्ष तुरंत घर को स्थानांतरित हो गया।

जहाँ उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेती है, वहीं लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती है। वह तो प्रतिदिन मनुष्यों का जो स्थान धूल में उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता! यह गंदा कैसे उड़ रहा है?
माता कहती है- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लक्ज़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर।

तेरे पति को लक्सियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर माँ से मिलने जाएगा, तब तू लक्सियों का बोझ बढ़ेगा जाना और चौक में गट्ठर जोर से आवाज लगेगी- लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? माताजी से बहुत अच्छा किस्सा वह प्रसन्न मन से लक्सिज़ के तीन गट्ठर बनाए। एक नदी के किनारे और एक माताजी के मंदिर पर रखा गया।

इतने में मुसाफिर आ गया। सूखी लकड़ी देखकर उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम उसी पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गाँव जाएँ। इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गाँव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर के लिए वह उटावली सी आती है। लक्सियों का भारी बोझ कम करने में जोर से तीन आवाजें देती है- लो सासूजी, लक्सियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है।

यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़ा-गहने पहिन। उसकी आवाज़ सुन उसके पति बाहर आता है। अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है।
माँ से चिंतित है- माँ यह कौन है?
माँ बोली- बेटा यह तेरी बहु है। जब से तू गया है तब से सारे गाँव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ नहीं करती, चार पहर आकर खा जाती है।

वह बोला- ठीक है माँ मैंने इसे भी देखा और इसलिए भी, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहेंगे।
माँ बोली- ठीक है, जैसी तेरी मर्जी। तब वह दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोलकर सारा सामान जमाया। एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था? बहु सुख भोगने लगी। बहुत में शुक्रवार आया।

शुक्रवार व्रत के उद्यापन में हुई भूल, किया खटाई का इस्तेमाल-
उसने पति से कहा- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है।
पति बोला- खुशी से कर लो। वह उद्यम की तैयारी करने लगी। जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहा गया। उन्होंने कहा कि जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो, भोजन के समय खाना मांगना, जिससे उनका उद्देश्य पूरा न हो।

लड़के जिमने आये खीर खाना पेट भर खाए, लेकिन बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो, खीर खाना हमको नहीं भाता, देखकर अरुचि होती है।
वह कहती लगी- भाई खताई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है।
लड़का उठ खड़ा हुआ, बोला- पैसा लाओ, भोली बहू कुछ नहीं करना था, उन्हें पैसे दे दिए।

लड़का उसी समय हाथ करके इमली खटाई खाने लगे। यह देखकर माताजी ने बहु पर कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ जेठानी मन-माने वचन कहे लगे। लूट-लूट कर धन इकट्ठा करके लाया गया है , अब सब ख़त्म हो जाएगा जब जेल की मार खाएगा। बहू से यह सहन नहीं हुए।

माँ संतोषी सेबुही माफ़ी-
रोटी हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता! तूने क्या किया, हंसा कर अब भक्तों को रुलाने लगी।
माता बोली- बेटी तूने उद्यम करके मेरा व्रत भंग किया है।
उसने कहा लगी- माता मैंने कुछ अपराध किया है, मैंने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यम करूँगी।
माँ बोली- अब भूल मत करना।

वह कहती है- अब भूल नहीं होगी, अब लड़ाओ वे कैसे आएंगे?
माँ बोली- जा पुत्री तेरा पति तेरे रास्ते में आता मिलेगा। वह निकली, राह में पति आता मिला।
वह पूछी- कहाँ गए थे?
उसने कहा लगा- इतना धन जो कमाया है उसके बक्स राजा ने माँगा था, वह भर गया था।
वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर को चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया..

फिर किया व्रत का उद्यापन-
वह बोली- मुझे फिर माता का उद्देश्य करना है।
पति ने कहा- करो, बहुत फिर जेठ के लड़कों को भोजन कहने गई। जेठानी ने एक दो बातें सुनीं और सब लड़कों को सिखाने लगी। तुम सब लोग पहले ही खटाई चाहना।
लड़के खाने से पहले कहने लगे- हमें खीर नहीं खानी, हमारा जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो।
वह बोली-खताई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, वह ब्राह्मण के लड़के को लेकर भोजन कराने लगी, जैसे शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल दिया। संतोषी माता प्रसन्न हुई।

संतोषी माता का फल-
माता की कृपा होते ही नवमें मास में उनके चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुए। पुत्र को प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी।
माँ ने सोचा- यह तो रोज आती है, आज घर क्यों नहीं चलूँ। इस विचार से माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियाँ भीन-भिन कर रही थी।
देहली पर पैरुला ही उसकी सास चिल्लाई- देखो रे, कोई चुड़ैल चली आ रही है , लड़के इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी। लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे।

बहु रोशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी- आज मेरी माता जी मेरे घर आई है। वह बच्चे को दूध पीने से हटती है। इतनी जल्दी सास का गुस्सा फूट पड़ा।
वह बोली- क्या उतावली हुई है? बच्चे को पटक दिया। इतने में माँ के प्रताप से लड़के ही लड़के नज़ारे आने लगे।
वह बोली- माँ मैं जिसका व्रत करती हूँ यह संतोषी माता है।

सबने माता जी के चरण पकड़ कर विनती कर कहे लगे- हे माता! हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, आपके व्रत की विधि हम नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया,तथा माता सब दे, जो पढ़ती है उसका मनोरथ पूर्ण हो।


बोलो संतोषी माता की जय।

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शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत करने का एक मात्र उद्देश्य अपने जीवन में संतोष और शांति की प्राप्ति करना है। इस व्रत के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने कष्टों से मुक्ति पा सकता है, बल्कि परिवार में भी सुख-शांति और समृद्धि ला सकता है। संतोषी माता की कृपा से जीवन में आने वाली सभी परेशानियाँ और बाधाएँ दूर होती हैं और मनुष्य का जीवन सुखमय बनता है।

संतोषी माता व्रत कथा हमें सिखाती है कि दस्तावेज़ और चादर के बीच भी हमें अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास रखना चाहिए। सच्ची भक्ति और श्रद्धा से किए गए व्रत और पूजा से माता संतोषी सदैव प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों को आशीर्वाद देती हैं।

इसलिए, प्रत्येक शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत कर उनकी कथा सुनने और पढ़ने का संकल्प लेना चाहिए, जिससे जीवन में संतोष और शांति की प्राप्ति हो सके। संतोषी माता की कृपा से हमारा जीवन सुखमय और समृद्धि से भर जाए, यही हमारी कामना है।

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