'षटतिला एकादशी व्रत' हिंदू धर्म में एक प्रमुख व्रत है जो भगवान विष्णु की पूजा और आराधना में मनाया जाता है। इस व्रत का महत्व धार्मिक आदर्शों को समर्पित और धार्मिक साधना में अग्रसर होने का संदेश देता है। इसकी कथा में भगवान के प्रति श्रद्धा, समर्पण और समर्पण की महत्वपूर्ण शिक्षा है।
षष्ठतिला एकादशी व्रत कथा
एक समय नारदजी ने भगवान श्रीविष्णु से यही प्रश्न किया था और भगवान ने जो षटतिला एकादशी का महात्म्य नारदजी से कहा: सो मैं कहता हूँ। भगवान ने नारदजी से कहा कि हे नारद! मैं सत्य घटना कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।
प्राचीनकाल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत करती थी। एक समय वह एक मास तक व्रत करती रहती है। इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया। यद्यपि वह अत्यंत बुद्धिमान थी तथापि उसने कभी देवताओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न या धन का दान नहीं किया था। इसलिए मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है, अब यह विष्णुलोक मिल ही जाएगा, लेकिन इसने कभी अन्न का दान नहीं किया, इसलिए इसकी तृप्ति होना कठिन है।
भगवान ने आगे कहा: ऐसी ऊंची मैं भिखारी के वेश में मृत्युलोक में वह ब्राह्मणी के पास गई और उससे भिक्षा चाहती हूँ।
वह ब्राह्मणी बोली: महाराज किसलिए आए हो?
मैंने कहा: मुझे भिक्षा चाहिए।
इस पर उसने एक मिट्टी का ढेर मेरे भिक्षापात्र में डाल दिया। मैं उसे लेकर स्वर्ग में लौट आया। कुछ समय बाद ब्राह्मणी भी शरीर त्याग कर स्वर्ग में आ गई। उस ब्राह्मणी को मिट्टी का दान करने से स्वर्ग में सुन्दर महल मिला, परन्तु उसने अपने घर को अन्नादि सब स्थापनाओं से शून्य पाया।
घबराकर वह मेरे पास आई और कहा लगी कि भगवान मैंने अनेक व्रतों से आपकी पूजा की, लेकिन फिर भी मेरा घर अन्नादि सब से शून्य है। इसका क्या कारण है?
इस पर मैंने कहा: पहले तुम अपने घर जाओ। देवस्त्रियाँ आएंगी इसीलिए देखने के लिए। पहले उनसे षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि सुन लो, तब द्वार खुलना। मेरे ऐसे वचन सुनकर वह अपने घर गई। जब देवस्त्रियाँ आईं और द्वारपाल को कहा तो ब्राह्मणी बोली: आप मुझे देख रहे हैं तो षटतिला एकादशी का माहात्म्य मुझसे कहो।
उनसे एक देवस्त्री कहने लगी कि मैं कहती हूँ। जब ब्राह्मणी ने षष्ठतिला एकादशी का माहात्म्य सुना तब द्वार खोल दिया। देवांगनाओं ने देखा कि न तो वह गांधर्वी है और न ही आसुरी है, वरन पहले जैसी मानुषी है। उस ब्राह्मणी ने अपने कथनानुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से वह सुन्दर और रूपवती हो गयी तथापि उसका घर अन्नादि समस्त प्रकाशन से युक्त हो गया।
अत: मनुष्य को मूर्खता त्यागकर षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिलादि का दान करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इस प्रकार षटतिला एकादशी व्रत कथा समाप्त हुई।
जय श्री हरि !
प्राचीनकाल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत करती थी। एक समय वह एक मास तक व्रत करती रहती है। इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया। यद्यपि वह अत्यंत बुद्धिमान थी तथापि उसने कभी देवताओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न या धन का दान नहीं किया था। इसलिए मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है, अब यह विष्णुलोक मिल ही जाएगा, लेकिन इसने कभी अन्न का दान नहीं किया, इसलिए इसकी तृप्ति होना कठिन है।
भगवान ने आगे कहा: ऐसी ऊंची मैं भिखारी के वेश में मृत्युलोक में वह ब्राह्मणी के पास गई और उससे भिक्षा चाहती हूँ।
वह ब्राह्मणी बोली: महाराज किसलिए आए हो?
मैंने कहा: मुझे भिक्षा चाहिए।
इस पर उसने एक मिट्टी का ढेर मेरे भिक्षापात्र में डाल दिया। मैं उसे लेकर स्वर्ग में लौट आया। कुछ समय बाद ब्राह्मणी भी शरीर त्याग कर स्वर्ग में आ गई। उस ब्राह्मणी को मिट्टी का दान करने से स्वर्ग में सुन्दर महल मिला, परन्तु उसने अपने घर को अन्नादि सब स्थापनाओं से शून्य पाया।
घबराकर वह मेरे पास आई और कहा लगी कि भगवान मैंने अनेक व्रतों से आपकी पूजा की, लेकिन फिर भी मेरा घर अन्नादि सब से शून्य है। इसका क्या कारण है?
इस पर मैंने कहा: पहले तुम अपने घर जाओ। देवस्त्रियाँ आएंगी इसीलिए देखने के लिए। पहले उनसे षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि सुन लो, तब द्वार खुलना। मेरे ऐसे वचन सुनकर वह अपने घर गई। जब देवस्त्रियाँ आईं और द्वारपाल को कहा तो ब्राह्मणी बोली: आप मुझे देख रहे हैं तो षटतिला एकादशी का माहात्म्य मुझसे कहो।
उनसे एक देवस्त्री कहने लगी कि मैं कहती हूँ। जब ब्राह्मणी ने षष्ठतिला एकादशी का माहात्म्य सुना तब द्वार खोल दिया। देवांगनाओं ने देखा कि न तो वह गांधर्वी है और न ही आसुरी है, वरन पहले जैसी मानुषी है। उस ब्राह्मणी ने अपने कथनानुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से वह सुन्दर और रूपवती हो गयी तथापि उसका घर अन्नादि समस्त प्रकाशन से युक्त हो गया।
अत: मनुष्य को मूर्खता त्यागकर षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिलादि का दान करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इस प्रकार षटतिला एकादशी व्रत कथा समाप्त हुई।
जय श्री हरि !
समापन:
'षटतिला एकादशी व्रत' कथा हमें धार्मिक आदर्शों के पालन की महत्वपूर्णता को समझाती है और हमें ध्यान, समर्पण और भक्ति के महत्व को समझाती है। इसके अलावा, यह कथा हमें धर्म के महत्व को समझाती है और हमें धार्मिक जीवन के महत्व को समझाती है।
इस व्रत के पालन से हम आत्मिक विकास की ओर बढ़ सकते हैं और अपने जीवन को धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध कर सकते हैं। इस प्रकार, 'षटतिला एकादशी व्रत' कथा हमें आध्यात्मिक सफलता की दिशा में अग्रसर करती है।