कार्तिक मास महात्म्य कथा: अध्याय 27(कार्तिक मास महात्म्य कथा: अध्याय 27)

कार्तिक मास हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है। इस पवित्र माह में भगवान विष्णु की पूजा और दीपदान का विशेष महत्व है। कार्तिक मास महात्म्य कथा का अध्याय 27 इस महत्व को और भी अधिक स्पष्ट करता है।

इस अध्याय में धार्मिक अनुष्ठानों और भक्तिपूर्ण कार्यों का वर्णन है जो न केवल आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं बल्कि जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लाने में भी सहायक हैं।

अध्याय 27 में हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं। यह अध्याय बताता है कि कार्तिक मास में किए गए छोटे-छोटे पुण्य कार्य भी अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं और उनका प्रभाव जीवन में सकारात्मकता लाता है।

इस महीने में किए गए तप, व्रत और दान के कार्य विशेष फलदायी होते हैं। भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिए इस मास में की जाने वाली पूजा-पाठ और धार्मिक प्रवृत्ति का विशेष महत्व बताया गया है।

कार्तिक मास महात्म्य कथा: अध्याय 27

प्रभुओं ने कहा- एक दिन की बात है, विष्णुदास ने नित्यकर्म करने के पश्चात भोजन तैयार किया कोई छिपकर उसे चुरा ले गया। विष्णुदास ने देखा कि भोजन नहीं है परन्तु उन्होंने दोबारा भोजन नहीं बनाया क्योंकि ऐसा करने पर विज्ञान की पूजा के लिए उन्हें अवकाश नहीं मिलता। अत: प्रतिदिन के नियम का उल्लंघन हो जाने का भय था। दूसरे दिन पुन: उसी समय भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान विष्णु को भोग अर्पण करने के लिए गए त्यों ही किसी ने आकर फिर सारा भोजन ग्रहण किया।

इस प्रकार सात दिनों तक लगातार कोई उनका भोजन चुराकर ले जाता रहा। इससे विष्णुदास को बड़ा विस्मय हुआ वे मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगे- अहो! कौन रोज़ आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है। यदि दोबारा भोजन बनाऊं तो विज्ञान की पूजा छूट जाती है। यदि रसोई में तुरन्त ही भोजन बनाना उचित हो तो मुझे यह न होगा क्योंकि भगवान विष्णु को सब कुछ अर्पण किये बिना कोई भी वैष्णव भोजन नहीं करता। आज उपवास करते मुझे सात दिन हो गए। इस प्रकार मैं व्रत में कब तक स्थिर रह सकता हूँ। अच्छा! आज मैं रसोई की भली-भाँति रक्षा करूँगा।

ऐसा करके भोजन बनाने के बाद वे कहीं छिपकर खड़े हो गए। इतने में ही उन्हें एक चांडाल दिखाई दिया जो रसोई का अन्न हरकर जाने के लिए तैयार था। भूख के मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो गया था मुख पर दीनता छा रही थी। शरीर में हाड़ और चाम के सिवा कुछ शेष नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णुदास का हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने भोजन चुराने वाले चांडाल की ओर देखकर कहा- भैया! जरा ठहरो, ठहरो! रूखा-सूखा क्यों होता है? यह घी तो ले लो।

इस प्रकार कहते हुए विप्रवर विष्णुदास को आते देख वज चाण्डाल भय के मारे बड़े वेग से भागा और कुछ ही दूरी पर मूर्छित गिर पड़ा। चाण्डाल को देखकर और मूर्ख देखकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास बड़े वेग से उसके समीप आये और दयावश अपने वस्त्र के अंत सेहो हवा करने लगे।
तदन्तर जब वह उठकर खड़ा हुआ तब विष्णुदास ने देखा वहां चाण्डाल नहीं हैं बल्कि साक्षात नारायण ही शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए उपस्थित हैं। अपने प्रभु को प्रत्यक्ष देखकर विष्णुदास सात्विक भावों के वशीभूत हो गये। वे स्तुति और नमस्कार करने में भी समर्थ न हो सके तब भगवान ने सात्विक व्रत का पालन करने वाले अपने भक्त विष्णुदास को छाती से लगा लिया और उन्हें अपने रूप देकर वैकुंठधाम को ले चले।

उस समय यज्ञ में दीक्षित हुए राजा चोल ने देखा- विष्णुदास एक श्रेष्ठ विमान पर भगवान विष्णु के समीप जा रहे हैं। विष्णुदास को वैकुंठधाम में जाते देख राजा ने शीघ्र ही अपने गुरु महर्षि मुद्गल जिसे बुलाया गया और इस प्रकार कहा गया रामभरोसा किया- जिसके साथ प्रतियोगिता करके मैंने इस यज्ञ, दान आदि कर्म का अनुष्ठान किया है वह ब्राह्मण आज भगवान विष्णु का रूप धारण करके मुझसे पहले ही वैकुंठधाम को जा रहा है। मैंने इस वैष्णवधाम में भली-भाँति दीक्षित होकर अग्नि में हवन किया और दान आदि के द्वारा ब्राह्मणों का मनोरथ पूर्ण किया तथापि अभी तक भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न नहीं हुए और इस विष्णुदास को केवल भक्ति के ही कारण श्रीहरि ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। पर: जान पड़ता है कि भगवान विष्णु केवल दान और यज्ञों से प्रसन्न नहीं होते। उन प्रभु का दर्शन कराने में भक्ति ही प्रमुख कारण है।

दोनों राजाओं ने कहा- इस प्रकार राजा ने अपने भांजे को राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। वे बचपन से ही यज्ञ के दिन लेकर उसी में संलग्न रहते थे, इसलिए उनमें कोई पुत्र नहीं हुआ था। यही कारण है कि उस देश में अब तक भांजे ही राज्य के उत्तराधिकारी होते हैं। भांजे को राज्य देकर राजा यज्ञशाला में गए और यज्ञकुंड के सामने खड़े होकर भगवान विष्णु को सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्च स्वर से निम्नांकित वचन बोले- भगवान विष्णु! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा होने वाली अविचल भक्ति प्रदान कीजिए।

इस प्रकार वे सबके देखते-देखते अग्निकुण्ड में कूद पड़े। बस, उसी क्षण भक्तवत्सल भगवान विष्णु अग्निकुण्ड में प्रकट हो गए। उन्होंने राजा को छाती से लगाकर एक श्रेष्ठ विमान में बैठाया और अपने साथ वैकुंठधाम को प्रस्थान किया।

नारद जी बोले- हे राजन्! जो विष्णुदास थे वे तो पुण्यशील नाम से प्रसिद्ध भगवान के मुखिया हुए और जो राजा चोल थे उनका नाम 1. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 1 ... हुआ। इन दोनों को अपने ही समान रूप में भगवान लक्ष्मीपति ने अपना द्वारपाल बना लिया।

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अध्याय 27 का समापन हमें यह सिखाता है कि कार्तिक मास का प्रत्येक क्षण सार्थक है। इस मास में श्रद्धा और भक्ति के साथ किए गए कार्य हमारे जीवन को सुखमय बनाते हैं।

अध्याय 27 के माध्यम से हमें यह भी ज्ञात होता है कि भगवान की भक्ति और धार्मिक प्रवृत्ति का पालन न केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन में शांति और समृद्धि लाता है, बल्कि समस्त समाज के लिए भी लाभकारी होता है। कार्तिक मास का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार, कार्तिक मास महात्म्य कथा के अध्याय 27 के माध्यम से हम जीवन में आध्यात्मिकता और धार्मिकता के महत्व को समझ सकते हैं। यह अध्याय हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन में पुण्य कार्य और धर्म के मार्ग पर चलें और भगवान की कृपा प्राप्त करें।

कार्तिक मास का पालन करके हम अपने जीवन को न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध बना सकते हैं, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में सकारात्मकता और सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

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