गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र (गणपति अथर्वशीर्ष) हिंदी में

गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र (गणपति अथर्वशीर्ष) एक प्राचीन वैदिक मंत्र है जो भगवान गणेश की महिमा का गुणगान करता है। इस मंत्र का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है और यह अत्यंत महत्वपूर्ण एवं पवित्र माना जाता है।

गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र का उद्देश्य साधक को भगवान गणेश की कृपा प्राप्त करना और उनकी सभी बाधाओं को दूर करना है। भगवान गणेश, जिन्हें विघ्नहर्ता और बुद्धि के देवता के रूप में जाना जाता है, हिंदू धर्म में प्रथम पूज्य माने जाते हैं। प्रत्येक शुभ कार्य की शुरुआत गणेश वंदना से होती है, ताकि कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न हो सके।

गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र का पाठ करने से मनुष्य को आत्मिक शांति मिलती है और उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति होती है। यह मंत्र न केवल भौतिक सुख-समृद्धि को प्राप्त करने में सहायक है, बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान और बुद्धि की वृद्धि में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इसके नियमित जप से साधक की साधना में स्थिरता आती है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाता है।

मंत्र की रचना अत्यंत सुन्दर और गूढ़ है। इसमें भगवान गणेश के विभिन्न रूपों, शक्तियों और गुणों का वर्णन किया गया है। गणपति अथर्वशीर्ष में भगवान गणेश को "सर्वेश्वर" और "सर्वज्ञ" के रूप में निर्देशित किया गया है।

यह मंत्र भी यही कहता है कि गणेश जी ही सभी प्राणियों की आत्माएं हैं और सभी कुछ प्राप्त से उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार, गणपति अथर्वशीर्ष न केवल एक भक्तिपूर्ण स्तुति है, बल्कि यह एक गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक ग्रन्थ भी है।

इस मंत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति की सोच सकारात्मक होती है और उसकी चिंताएं दूर होती हैं। भगवान गणेश की कृपा से सभी विघ्नों से मुक्ति मिलती है और उनका जीवन सुखमय एवं समृद्धिशाली बनता है।

इसके साथ ही, इस मंत्र का पाठ करने से व्यक्ति की एकाग्रता, स्मरण शक्ति और आत्मबल में वृद्धि होती है, जो उसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफल बनाती है।

गणपति अथर्वहेड मन्त्र:

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाग्देवसस्तनूभिः ।
विस्तृतं देवहितं यदायुः ।

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्कष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ नमस्ते गणपतये ॥१॥

त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि ।
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि ।

त्वमेव केवलं धर्त्सि ।
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि ।
त्वमेव सर्वं खलविदं ब्रह्मासि ।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥२॥

ऋतं वाच्मि । सत्यं वाच्मि ॥३॥
अव त्वं माम् ।
अव वक्तारम् ।
अव श्रोताम् ।
अव दातारम् ।
अव धातारम् ।
अवानुचानमव शिष्यम् ।

अव पुरस्तात् ।
अव दक्षिणात् ।
अव अप्तात् ।
अवचर्तत् ।
अव चोरध्वत्तात् ।
अवधरात्तात् ।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥४॥

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ।
त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः ।
त्वं सच्चिदानन्दाऽद्वितीययोऽसि ।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥५॥

सर्वं जगदीदं त्वत्तो जायते ।
सर्वं जगदीदं त्वत्तस्तिष्ठति ।
सर्वं जगदीदं त्वयि लयमेष्यति ।
सर्वं जगदीदं त्वयि प्रत्येति ।
त्वं भूमिरापोऽनल्लोऽनिलो नभः ।
त्वं चत्वारि वाक् {परिमिता} उत्पन्नानि ।
त्वं गुणत्रयातीतः ।
त्वं अवस्थात्रयातीतः ।
त्वं देहात्रयातीतः ।
त्वं कालत्रयातीतः ।

त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ।
त्वं शक्तित्रयात्मकः ।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ।

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं
ब्रह्म भूर्भुवस्सुवरोम् ॥६॥

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादीनस्तदनन्तरम् ।
अनुस्वरः परतरः ।
अर्धेन्दुलसितम् ।
तारेण ऋद्धम् ।
एत्तत्वमनुस्वरूपम् ॥७॥

गकारः पूर्वरूपम् ।
अकारो मध्यरूपम् ।
अनुस्वरश्चान्त्यरूपम् ।
बिन्दुरूत्तररूपम् ।
नादस्सन्धानम् ।
सग्न्‌हिता संदः ॥८॥

सौशा गणेशविद्या ।
गणक ऋषिः ।
निचृद्गायत्रीच्छन्दः ।
गणपतिर्देवता ।
ॐ गं गणपतये नमः ॥य॥

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।
तन्नो दन्तीः प्रचोदयात् ॥१०॥

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम् ।
रादं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवासम् ।
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैस्सुपूजितम् ॥

भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥११॥

नमो व्रतपतये ।
नमो गणपतये ।
नमः प्रमथपतये ।
नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय
विघ्ननाशिनी शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥१२॥

एतदथर्वशीर्षं योऽधीते स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।
स सर्वविघ्नैर्न बद्धते ।
स सर्वत्र सुखमेधते ।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते ।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो पापोऽपापो भवति ।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ॥१३॥

इदमथर्वशीर्षमशिष्यै न देयम् ।
यो यदि मोहाद्दस्यति स पापियान् भवति ।
सहस्रवर्तनाद्यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥१४॥

अनेन गणपतिमभिषीञ्चति स वाग्मी भवति ।
चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान भवति ।
इत्यथर्वणवाक्यम् ।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यान्न बिभेति कदाचनेति ॥१५॥

यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ।
स मेधावान् भवति ।
यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ।
यश्साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥१६॥

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राह्यित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।
सूर्यग्रहामहानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति
महाविघ्नत् प्रमुच्यते ।
महादोषात् प्रमुच्यते ।
महाप्रत्यवयात् प्रमुच्यते ।
स सर्वविद् भवति स सर्वविद् भवति ।
य एवं वेद ।
इतुपनिषत् ॥१७॥

ॐ शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः ॥

निष्कर्ष:

गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र (गणपति अथर्वशीर्ष) का महत्व असीम है और यह अनादि काल से भक्तों के लिए एक शक्तिशाली उपकरण रहा है। इस मंत्र के नियमित जप से भगवान गणेश की कृपा प्राप्त हो सकती है और आपके जीवन को सुखमय, समृद्ध और सुखद बनाया जा सकता है।

भगवान गणेश की महिमा का गुणगान करने वाला यह मंत्र व्यक्ति को आध्यात्मिक जागरण की ओर प्रेरित करता है और जीवन के समस्त विघ्नों से मुक्ति दिलाता है।

गणपति अथर्वशीर्ष केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि एक साधना है जो व्यक्ति को अपनी आंतरिक शक्तियों का एहसास कराती है।

इसका नियमित पाठ व्यक्ति को नकारात्मक ऊर्जा से दूर रखता है और उसे सकारात्मकता की ओर अग्रसर करता है। यह मंत्र जीवन में स्थिरता, समृद्धि और शांति लाने का एक अद्वितीय साधन है।

गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र का महत्व सिर्फ धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इसके पाठ करने से व्यक्ति के मन में स्थिरता और शांति आती है, जिससे उसकी मानसिक स्थिति में सुधार होता है। इसके साथ ही, भगवान गणेश की कृपा से उनके जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है।

अतः गणपति अथर्वशीर्ष मंत्र का नियमित पाठ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है। यह मंत्र न केवल भगवान गणेश की महिमा का बखान करता है, बल्कि साधक को अपनी शक्तियों का एहसास कराता है और उसे आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देता है।

इस मंत्र का जप करने से व्यक्ति को आंतरिक शांति, स्थिरता और समृद्धि प्राप्त होती है, जो उसे एक संतुलित और सफल जीवन जीने में सहायक होती है।

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