भारतीय संस्कृति में चित्रगुप्त जी का महत्व अत्यंत विशिष्ट है। प्रत्येक धर्म के पालनहार और न्याय के देवता के रूप में पूजा जाता है। हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित है कि चित्रगुप्त जी यमराज के सहायक हैं, जो प्रत्येक जीव के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं।
यम द्वितीया, जिसे भाई दूज के नाम से भी जाना जाता है, विशेष रूप से चित्रगुप्त जी की पूजा का दिन माना जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों की लंबी उम्र और खुशी की कामना करती हैं। यह त्यौहार न केवल भाई-बहन के रिश्ते की पवित्रता को दर्शाता है, बल्कि चित्रगुप्त जी की न्यायप्रियता और उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को भी उजागर करता है।
चित्रगुप्त जी का जन्म ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने यमराज के सहायक के रूप में एक ऐसे देवता की रचना की, जो प्रत्येक जीव के अच्छे और बुरे कर्मों का सही-सही मिसआली रख सके।
चित्रगुप्त जी ने अपनी इस भूमिका को अत्यंत निष्ठा और न्याय के साथ निभाया, जिससे वे सभी देवताओं और मनुष्यों के बीच सम्मानित हुए। यम द्वितीया के दिन, बहनें अपने भाइयों की कलाई पर पवित्र धागा बांधती हैं और चित्रगुप्त जी की पूजा करती हैं, ताकि उनके भाई सदैव सुखी और समृद्ध रहें।
चित्रगुप्त की कथा - यम दूसरा
पादान्मां सर्वपापेभ्य: शरणागत वत्सल: ॥
एक बार युधिष्ठिरजी भीष्मजी से बोले: हे पितामह! तेरी कृपा से मैंने धर्मशास्त्र सुना, परन्तु यम द्वितीया का क्या पुण्य है? क्या फल है? यह मैं सुनना चाहता हूँ। आप कृपा करके मुझे विस्तारपूर्वक कहिए।
भीष्मजी बोले: तूने अच्छी बात पूछी। मैं उस उत्तम व्रत को विस्तारपूर्वक बताता हूँ। कार्तिक मास के उजाले और चैत्र के अंधेरे की ओर जो दूसरा होता है, वह यम दूसरा कहलाती है।
युधिष्ठिरजी बोले: उस कार्तिक के उजले पक्ष की द्वितीया में किसका पूजन करना चाहिए और चैत्र माह में यह व्रत कैसे हो? इसमें किसका उपयोग करें?
भीष्मजी बोले: हे युधिष्ठिर! पुराण संबंधी कथाएं कहती हूं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस कथा को सुनने वाले प्राणियों को सब पापों से छूट मिलती है। सतयुग में नारायण भगवान से, सर्वोत्तम नाभि में कमल है, उससे ४ मुख वाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए इसलिए वेदवेत्ता भगवान ने चारों वेद कहे।
नारायण बोले: हे ब्रह्माजी! आप सबकी तुरीय अवस्था, रूप और योगियों की गति हो, मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण जगत को शीघ्रता से रचो।
हरि के ऐसे वचन सुनकर हर्ष से प्रफुल्लित हुए ब्रह्माजी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहुओं से क्षत्रियों को, जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया। उनके पीछे देव, गंधर्व, दानव, राक्षस, सांप, नाग, जल के जीव, स्थल के जीव, नदी, पर्वत और वृक्ष आदि को जन्म कर मनुजी को जन्म दिया। इनके बाद दक्ष प्रजापतिजी को जन्म दिया और तब उन्हें आगे और सृष्टि उत्पन्न करने को कहा। दक्ष प्रजापतिजी से 60 कन्याएं उत्पन्न हुईं, जिनमें से 10 धर्मराज को, 13 कश्यप को और 27 चंद्रमा को जन्मीं।
कश्यपजी से देव, दानव, राक्षस इनके स्वभाव और भी गंधर्व, पिशाच, गो और पक्षी की जातियां पैदा हुईं। धर्मराज को धर्म प्रमुख जानकर सभी पितामह ब्रह्माजी ने उन्हें सब लोगों का अधिकार दिया और धर्मराज से कहा कि तुम आलस्य त्याग कर काम करो। जैसे-जैसे शुभ व अशुभ कर्म किए जाते हैं, उसी प्रकार न्यायपूर्वक वेद शास्त्रों में कही गई विधि के अनुसार कर्ता को कर्म का फल दो और सदा मेरी आज्ञा का पालन करो।
ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर बुद्धिमान धर्मराज ने हाथ जोड़कर सबके परम-पूज्य ब्रह्माजी को कहा: हे प्रभो! मैं आपका सेवक निवेदन करता हूँ कि इस सारे जगत के कर्मों का विभागपूर्वक फल देने की जो आप मुझे आज्ञा देते हैं, वह एक महान कर्म है। आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैं यह काम करूंगा जिससे कि संसार को फल मिलेगा, परन्तु सम्पूर्ण सृष्टि में जीव और उनकी देह भी अनंत हैं।
धर्मराज के इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक किए गए कथन को विधाता सत्य जान मन में प्रसन्न हुए और यमराज का मनोरथ पूर्ण करने की चिंता करने लगे कि कथन सब गुणों वाला ज्ञानी लेखक पुरुष होना चाहिए। वह बिना धर्मराज का मनोरथ पूर्ण न होगा।
तब ब्रह्माजी ने कहा: हे धर्मराज! तेरे अधिकारों में मैं सहायता करूंगा।
इतना कह ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गए। उसी अवस्था में उन्होंने 1,000 वर्ष तक तपस्या की। जब समाधि खुलती है तब उनके सामने श्याम रंग, कमल नयन, शंख की सी गर्दन, गूढ़ सिर, चंद्रमा के समान मुख वाले, कमल-दवा और जल हाथ में लिए हुए, महाबुद्धि, देवता का मान बढ़ाने वाला, धर्माधर्म के विचार में महाप्रवीण लेखक ने कर्म में महाचतुर पुरुष को देखकर उससे पूछा कि तू कौन है?
तब उसने कहा: हे प्रभो! मैं माता-पिता को तो नहीं जानता लेकिन आपके शरीर से प्रकट हुआ हूँ इसलिए मेरा नामकरण कीजिए और कहिए कि मैं क्या करता हूँ?
ब्रह्माजी ने उस पुरुष के वचन सुन अपने हृदय से उत्पन्न हुए उस पुरुष को हंसकर कहा: तू मेरी काया से प्रकट हुआ है, इससे मेरी काया में तुम्हारी स्थिति है, इसलिए तुम्हारा नाम कायस्थ चित्रगुप्त है। धर्मराज के पुर में प्राणियों के शुभाशुभ कर्म लिखने में उनकी तू सखा बनी इसलिए तेरी उत्पत्ति हुई है।
श्री चित्रगुप्त जी महाराज की आरती
ब्रह्माजी ने चित्रगुप्त से इस प्रकार धर्मराज से कहा: हे धर्मराज! यह उत्तम लेखक तुझको मैंने दिया है, जो संसार में सब कर्मसूत्र की मर्यादा निभाने के लिए है। इतना उदाहरण ब्रह्माजी अन्तरध्यान हो गए।
फिर वह पुरुष (चित्रगुप्त) कोटि नगर को जाकर चण्ड-प्रचण्ड ज्वालामुखी कालीजी के पूजन में लग गया। उपवास कर उन्होंने भक्ति के साथ चंडिकाजी की भावना मन में की। उन्होंने उत्तमता से चित्त लगाकर ज्वालामुखी देवी का जप और स्तोत्रों से भजन-पूजन और उपासना की: हे जगत को धारण करने वाली, तुम्हें नमस्कार है महादेवी! तुम्हें नमस्कार है। स्वर्ग, मृत्यु, पाताल आदि लोक-रूपांतरों को प्रकाश देने वाली, तुम्हें नमस्कार है। संध्या एवं रात्रि रूप भगवती, तुम्हें नमस्कार है। श्वेत वस्त्र धारण करने वाली सरस्वती, तुम्हें नमस्कार है। सत, रज, तमोगुण रूप देवों को कांति देने वाली देवी, हिमाचल पर्वत पर स्थापित आदिशक्ति चंडी देवी आपको नमस्कार है।
उत्तम और नवीन गुणों से रहित वेद की प्रवृत्ति करने वाली, ३३ कोटि देवताओं को प्रकट करने वाली त्रिगुण रूप, निर्गुण, गुणहीन, गुणों से परे, गुणों को देने वाली, ३ आँखों वाली, ३ प्रकार की मूर्ति वाली, साधकों को वर देने वाली दैत्यों का नाश करने वाली, इंद्रादि देवों को राज्य देने वाली, श्रीहरि से पूजित देवी हे चण्डिका! आप इन्द्रादि देवों को जैसे क्षमा देते हैं, वैसे ही आप भी क्षमा देते हैं। मैंने लोगों के अधिकारों के लिए आपकी स्तुति की है, इसमें संशय नहीं है।
ऐसी स्तुति को सुन देवी ने चित्रगुप्तजी को वर दिया। देवीजी बोलीं: हे चित्रगुप्त! तूने मेरा आराधना-पूजन किया, इससे मैंने आज तुम्हें बताया कि तू अपने अधिकार में कुशल, सदा स्थिर और अनेक वर्षों की आयु वाला होगा। यह वर देकर दुर्गा देवीजी अन्तरध्यान हो गया। उसके बाद चित्रगुप्त धर्मराज के साथ उनके स्थान पर चले गए और वे भक्ति करने योग्य अपने आसन पर स्थित हो गए।
उसी समय ऋषियों में उत्तम ऋषि सुशर्मा, छोटी संतान की इच्छा थी, ने ब्रह्माजी की आराधना की। तब ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से अपनी इरावती नाम की कन्या को चित्रितगुप्त के साथ विवाह किया। उस कन्या से चित्रगुप्त के 8 पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम ये हैं: चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण और 8वें अतिन्द्रिय। दूसरी जो मनु की कन्या दक्षिणा चित्रगुप्त से विवाह कर गई, उसके 4 पुत्र हुए। उनके भी नाम सुने: भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान। चित्रगुप्त के ये 12 पुत्र विच्युत हुए और पृथ्वी-तल पर विचारे।
उनसे चारु मथुराजी को गए और वहां से मथुरा हुए। हे राजन्, सुचारु गौड़ बंगाले को गए, इससे वे गौड़ हुए। चित्रभट्ट नदी के पास के नगर को गए, वे भट्टनागर कहलाए। श्रीवास नगर में भानु बसे, इससे वे श्रीवास्तव कहलाए। हिमवान अम्बा दुर्गाजी की आराधना कर अम्बा नगर में रहते, वे अम्बष्ट कहलाए। साखसेन नगर में अपने भार्या के साथ मतिमान हो गए, वे सूर्यध्वज कहलाए और अनेक स्थानों में बसे अनेक जातियां कहलाए।
उस समय पृथ्वी पर एक राजा जिसका नाम सौदास था, सौराष्ट्र नगर में उत्पन्न हुआ। वह महापापी, पराया धन चुराने वाला, पराई स्त्रियों में आसक्त, महाअभिमानी, चुगलखोर और पाप कर्म करने वाला था। हे राजन्! जन्म से लेकर सभी आयुपर्यन्त उसने कुछ भी धर्म नहीं किया। किसी समय वह राजा अपनी सेना लेकर उस वन में, जहां बहुत हिरण आदि जीव रहते थे, शिकार किया जाता था। वहां उन्होंने निरंतर व्रत करते हुए एक ब्राह्मण को देखा। वह ब्राह्मण चित्रगुप्त और यमराजजी का पूजन कर रहा था।
यम द्वितीया का दिन था। राजा ने पूछा: महाराज! आप क्या कर रहे हैं? ब्राह्मण ने यम द्वितीया व्रत कहा हार। यह सुनकर राजा ने वहीं उसी दिन कार्तिक के महीने में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को धूप और दीपदान सामग्री से चित्रगुप्तजी के साथ धर्मराजजी का पूजन किया। व्रत करके उसके बाद वह अपने घर में आया। कुछ दिन पीछे उसके मन को विस्मरण हुआ और वह व्रत भूल गया। याद आने पर उसने फिर से व्रत किया।
समयोपरांत काल संयोग से वह राजा सौदास मर गया। यमदूतों ने उसे बांधकर यमराजजी के पास पहुंचाया। यमराजजी ने उस घबराते हुए मन वाले राजा को अपने दूतों से पिटते हुए देखा तो चित्रगुप्तजी से पूछा कि इस राजा ने क्या काम किया? उस समय धर्मराजजी ने एक वचन सुन चित्रगुप्तजी से कहा था: यह बहुत ही चित्रित हैं, लेकिन दैवयोग से एक व्रत किया है, जो कार्तिक के शुक्ल पक्ष में यम द्वितीया होती है, उस दिन आपका और मेरा गंध, चंदन, फूल आदि सामग्री से एक बार भोजन के नियम से और रात में जागने से पूजन किया। हे देव! हे महाराज! इस कारण से यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है। चित्रगुप्तजी के ऐसा कहने से धर्मराजजी ने उन्हें छुड़ाया और उन्होंने इस यम द्वितीया के व्रत के प्रभाव से उत्तम गति को प्राप्त किया।
ऐसा सुनकर राजा युधिष्ठिर भीष्म से बोले: हे पितामह! इस व्रत में मनुष्यों को धर्मराज और चित्रगुप्तजी का पूजन कैसे करना चाहिए? तो मुझे कहिए।
भीष्मजी बोले: यम द्वितीया के विधान को सुनो। एक पवित्र स्थान पर धर्मराज और चित्रगुप्तजी की मूर्ति बनाएं और उनकी पूजा की कल्पना करें। वहां उन दोनों की प्रतिष्ठा कर 16 प्रकार व 5 प्रकार की सामग्री से श्रद्धा-भक्तियुक्त नाना प्रकार के नोटबुक, लड्डू, फल, फूल, पान तथा दक्षिणादि उपहारों से धर्मराजजी और चित्रगुप्तजी का पूजन करना चाहिए। पीछे बारंबार नमस्कार करें।
हे धर्मराज जी! आपको नमस्कार है। हे चित्रगुप्तजी! आपको नमस्कार है। पुत्र दे, धन दे सब मनोर्थों को पूरा कर दे। इस प्रकार चित्रगुप्तजी के साथ श्री धर्मराजजी की पूजा विधि से दवा और कलम की पूजा करें। चंदन, कपूर, अगर और नैवेद्य, पान, दक्षिणादि स्थापित करें और कथा सुनें। बहन के घर खाना कर उसके लिए धन आदि दें। इस प्रकार भक्ति के साथ यम द्वितीया का व्रत करने वाला पुत्रों से युक्त होता है और मनोवांछित फल को पाता है।
उपसंहार
यम द्वितीया का पर्व भारतीय समाज में भाई-बहन के रिश्तों की गहराई और चित्रगुप्त जी की महिमा को प्रदर्शित करता है। यह त्यौहार न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी विशेष स्थान रखता है। चित्रगुप्त जी के प्रति श्रद्धा और विश्वास हमें यह सिखाता है कि हमारे कर्मों का लेखा-जोखा सदा उनके पास सुरक्षित रहता है और हमें सदैव सही मार्ग पर चलना चाहिए। भाई-बहन के इस पवित्र पर्व पर हम चित्रगुप्त जी की पूजा करते हैं और उनकी न्यायप्रियता की प्रेरणा लेते हैं।
चित्रगुप्त जी की कथा और यम द्वितीया का महत्व हमें याद है कि जीवन में न्याय, सत्य और धर्म का पालन कितना आवश्यक है। यह पर्व हमें अपने संगीत को संजोने और उनकी पवित्रता को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। अंततः, यम द्वितीया का पर्व चित्रगुप्त जी के प्रति हमारी आस्था और भाई-बहन के अटूट बंधन का प्रतीक है, जो हमें हमेशा जीवन में सही मार्ग पर चलने और अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है।