चक्रवर्ती राजा दिलीप की गौ भक्ति कथा हिंदी में

प्राचीन भारतीय इतिहास और पौराणिक कथाओं में हमें कई ऐसे राजा मिलते हैं जो अपनी प्रजा और धर्म के प्रति अत्यंत निष्ठावान दिखाई देते हैं। ऐसे ही एक महान राजा थे चक्रवर्ती राजा दिलीप, जिनकी गौ-भक्ति की कथा आज भी भारतीय समाज में प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।

राजा दिलीप की गौ-भक्ति न केवल उनकी धर्मपरायणता को दर्शाती है बल्कि यह हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति और निष्ठा के बल पर किसी भी बाधा को पार किया जा सकता है।

राजा दिलीप सूर्यवंश के एक प्रतापी राजा थे। उनका शासन काल उनकी धर्मपरायणता और न्यायप्रियता के लिए जाना जाता है। वह अपनी प्रजा के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहती थीं। लेकिन उनकी सबसे विशिष्ट विशेषता उनकी गौ-भक्ति थी। यह कथा हमें बताती है कि राजा दिलीप ने गौमाता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में भी संकोच नहीं किया।

एक बार राजा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा ने संतान प्राप्ति के लिए ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में निवास किया। ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें गौसेवा करने की सलाह दी, जिसके अंतर्गत नंदिनी नामक गाय की सेवा की गई थी। राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा ने अत्यंत भक्ति भाव से नंदिनी की सेवा की।

एक दिन जब राजा दिलीप नंदिनी को जंगल में चराने ले गए, तो एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया। राजा दिलीप ने बिना किसी मस्तूल के सिंह से नंदिनी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का निर्णय लिया। इस समर्पण और निष्ठा से प्रसन्न होकर नंदिनी ने उन्हें पुत्र का आशीर्वाद दिया।

चक्रवर्ती राजा दिलीप की गौ-भक्ति कथा

शास्त्रों में राजा को भगवान की विभूति माना गया है। साधारण व्यक्ति से श्रेष्ठ राजा को माना जाता है, राजाओं में भी श्रेष्ठ सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को और अधिक श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे ही पृथ्वी के एकछत्र सम्राट सूर्यवंशी राजर्षि दिलीप एक महान गौ भक्त हुए।

महाराज दिलीप और देवराज इन्द्र में मित्रता थी। देवराज के निधन पर दिलीप एक बार स्वर्ग गए। देव असुर संग्राम में देवराज ने महाराज दिलीप से सहायता प्राप्त की। राजा दिलीप ने सहायता करने के लिए हाँ कर दी और देव असुर युद्ध हुआ। युद्ध समाप्त होने पर स्वर्ग से लौटते समय मार्ग में कामधेनु मिली, किन्तु सम्राट दिलीप ने पृथ्वी पर आने की आतुरता के कारण उसे नहीं देखा। कामधेनु को उन्होंने प्रणाम नहीं किया, न ही प्रदक्षिणा की।

इस अपमान से रुष्ट होकर कामधेनु ने शाप दिया: मेरी संतान (नंदिनी गाय) यदि कृपा न करे तो यह पुत्रहीन ही रहेगी ।

महाराज दिलीप को शाप का कुछ पता नहीं था। परन्तु वे स्वयं अपने किसी पुत्र न होने से, महारानी तथा प्रजा के लोग भी चिन्तित एवं दुखी रहते थे। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महाराज दिलीप रानी के साथ कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुंचे। महर्षि सब कुछ समझ गए। महर्षि ने कहा यह गौ माता के अपमान के पाप का फल है। सुरभि गौ की पुत्री नंदिनी गाय हमारे आश्रम पर विराजती है।

महर्षि ने आदेश दिया: कुछ काल आश्रम में रहो और मेरी कामधेनु नन्दिनी की सेवा करो।

महाराज ने गुरु की आज्ञा स्वीकार कर ली। महा सुदक्षिणा प्रात: काल उस गौ माता की भली-भाँति पूजा करती थी। आरती उतारने वाली नन्दिनी को पति के संरक्षण में वन में चढ़ाने के लिए विदा करती है। सम्राट दिनभर छाया की भाँति उसके अनुरूपण करते, उसके मरे हुओं पर ठहरते, चलते पर चलते, बैठते पर विश्राम और जल पीने पर जल पीते। वन काल में जब सम्राट के आगे-आगे सद्य:प्रसूता, बालवत्सा नन्दिनी आश्रम को लौटती है तो महारानी देवी सुदक्षिणा हाथ में अक्षत-पात्र लेकर उनकी प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम करती हैं और अक्षतादिसे पुत्रप्राप्तिरूप अभीष्ट-सिद्धि देनेवाली उस नन्दिनी का विधिवत पूजन करती हैं।

अपने बछेड़े को यथेच्छ पय:पान* कराने के बाद दुह ले जानेपर नन्दिनी की रात्रि में दम्पति पुन: परिचर्या करता है, अपने हाथों से कोमल हरित पुष्प-कवल परितृप्ति करता है और उसके विश्राम करने पर शयन करता है। इस तरह उनकी परिचर्या करते इक्कीस दिन गुज़र गए। एक दिन वन में नन्दिनी का अनुराग करते महाराज दिलीप की दृष्टि क्षणभर अरण्य की प्राकृतिक सुंदरता में अटक गयी कि तभी उन्हें नन्दिनी का आर्तनाद सुना दिया।

वह एक भयानक सिंह के पंजों में फँसी छटपटा रही थी। उन्होंने आक्रामक सिंह को मारने के लिए अपने तीर से तीर निकालना चाहा, हालांकि उनके हाथ जडवत् निश्चेष्ट वहीं अटक गए, वे चित्रलिखे से खड़े रह गए और भीतर ही भीतर छटपटाने लगे।

यतः मनुष्य की वाणी में सिंह बोल उठ: राजन्! आपके शास्त्र संधान का श्रम उसी तरह व्यर्थ है जैसे पेड़ों को उखाड़ने वाला प्रभंजन पर्वत से टकराकर व्यर्थ हो जाता है। मैं भगवान शिव के गण निकुंभ का मित्र कुम्भोदरहु

भगवान शिव ने सिंहवृत्ति देकर मुझे हाथी आदि से इस वन के देवताओं की रक्षा का भार सौंपा है। इस समय जो भी जीव सर्वप्रथम मेरे दृष्टि पथ में आता है, वह मेरा भक्ष्य बन जाता है। इस गाय ने इस संरक्षित वन में प्रवेश करने की अनधिकार चेष्टा की है और मेरे भोजन की वेला में यह मेरे सम्मुख आई है, अत: मैं इसे खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर दूँगा। तुम लज्जा और ग्लानि छोड़कर वापस लौट जाओ।

दुर्भाग्य परदु:खतर दिलीप भय और व्यथा से छटपटाती, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहती नन्दिनी को देखकर और उस गतिशील काल में अपनी माँ की उत्कण्ठा से प्रतीक्षा करनेवा ले उसके दुधमुँहे बछेड़े का स्मरण कर करुणा-विगलित हो

! नंदिनी के पिता ने उन्हें अपने जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान् जान पड़ा और उन्होंने सिंह से प्रार्थना की कि वह उनके शरीर को खाकर अपनी भूख मिटा दें और बालवत्सा नंदिनी को छोड़ दें।

सिंह ने राजा के इस अद्भुत प्रस्ताव का उपहास करते हुए कहा: राजन्! तुम चक्रवर्ती सम्राट हो। गुरु को नंदिनी के बदले करोड़ो दुधारगुएं देकर प्रसन्न कर सकते हो। अभी तुम युवा हो, इस प्रकृति प्राणियों के लिए अपने स्वस्थ-सुन्दर शरीर और यौवन की जागृति कर जान की बाजी लगाने वाले सम्राट! लगता है, तुम अपना विवेक खो बैठे हो। यदि प्राणियों पर दया करने का सारा व्रत ही है, तो आज भी यदि इस गाय के बदले में मैं तुम्हें खा लूंगा तो तुम्हारे मर जाने पर केवल इसकी ही विपत्तियों से रक्षा हो और यदि तुम जीवित रहे तो पिता की भाँति सम्पूर्ण प्रजा की निरन्तर विपत्तियों से रक्षा करते रहेंगे ।

क्योंकि तुम अपने सुख भोक्ता शरीर की रक्षा करो। स्वर्गप्राप्ति के लिए तप त्याग करके शरीर की कष्ट देना, जैसे अमित ऐश्वर्यशालियों के लिए निरर्थक है। स्वर्ग? अरे वह तो इसी पृथ्वी पर है। जो पृथ्वी वैभव-विलास के समग्र साधन उपलब्ध हैं, वह समझो कि स्वर्ग में ही रह रहा है। स्वर्ग का काल्पनिक आकर्षण तो मात्र विपन्नो के लिए ही है, घटो के लिए नहीं। इस तरह से सिंह ने राजा को लुभाने का प्रयास किया।

भगवान शंकर के अनुचर सिंह की बात सुनकर अत्यंत दयालु महाराज दिलीप ने उनके द्वारा आक्रांत नंदिनी को देखा, जो अश्रुपूरित कातर नेत्रों से उनकी ओर देखा हुई प्राण रक्षा की याचना कर रही थी।

राजा ने क्षत्रियत्व के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उत्तर दिया: नहीं सिंह! नहीं, मैं गौ माता को सौभाग्य प्रदान नहीं कर सकता। मैं अपने क्षत्रियत्व को कलंकित क्यों मानता हूँ? क्षत्रिय संसार में इसलिए प्रसिद्ध हैं कि वे विपत्ति से औरों की रक्षा करते हैं। राज्य का भोग भी उनका लक्ष्य नहीं है। उनका लक्ष्य तो लोकरक्षासे कीर्ति बंधन करना है। निन्द से मलिन प्राणों और राज्य को तो वे प्रकृति वस्तुओ की तरह त्याग देते हैं, क्योंकि तुम मेरे यश: शरीर पर दयालु होओ।

मेरे भौतिक शरीर को खाकर उसकी रक्षा करो, क्योंकि यह शरीर तो ईश्वर है, मरणधर्मा है। क्योंकि इस पर हम जैसे चिंतन पुरुषों की ममता नहीं होती। हम तो यश: शरीर के पोषक हैं। यह मांस का शरीर न भी रहे, परन्तु गौरक्षा से मेरा यशः शरीर सुरक्षित रहेगा। संसार यही कहेगा कि गौ माता की रक्षा के लिए एक सूर्यवंश के राजा ने प्राण की आहुति दे दी। एक चक्रवर्ती सम्राट के प्राणों से भी अधिक मूल्यवान एक गाय है।

सिंह ने कहा: अगर आप अपना शरीर मेरा आहार बनाना ही चाहते हैं तो ठीक है। सिंह के बताए देने
पर राजर्षि दिलीप ने शास्त्रों को फेंक दिया और उसके आगे अपने शरीर मांसपिंड की तरह भोजन के लिए डाल दिया और वे जाके सिर झुकाये आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे, तभी आकाश से विद्याधर पर पुष्पवृष्टि करने लगे।
उत्तिष्ठ वत्से त्यमृतायमानं वाचः निश्म्य॥

नन्दिनी ने कहा: हे पुत्र! उठो! यह मधुर दिव्य वाणी सुनकर राजा को महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने वात्सल्यमयी जननी की तरह अपने स्तनों से दूध बहाती हुई नंदिनी गौ को देखा, किन्तु सिंह दिखाई नहीं दिया।

आश्चर्यचकित दिलीप से नन्दिनी ने कहा: हे सत्युरुष! तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैंने ही माया स्वसिंह की रचना की थी।

महर्षि वसिष्ठ के प्रभाव से यमराज भी अधिक प्रहार नहीं कर सकते तो अन्य सिंहक सिंहादिकी क्या शक्ति है। मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से और मेरे प्रति चित्रित दयाभाव से अतियन्त प्रसन्न हूँ। वर माँगो! तुम मुझे दूध देने वाली मामूली गाय मत समझो, अपितु सम्पूर्ण कामनाएं पूरी करनेवाली कामधेनु जानो।

राजा ने दोनों हाथ जोड़कर वंश चलाने वाले अनन्तकीर्ति पुत्र की याचना की नन्दिनीने तथास्तु कहा। उन्होंने कहा कि राजन् मैं आपकी गौ भक्ति से अति प्रसन्न हूँ, मेरे स्तनों से दूध निकल रहा है, उन्हें पत्तों के दोने में दुख पीकर गौ माता की आज्ञा दी और कहा कि आपके अत्यंत प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी।

राजाने निवेदन किया: माँ! बछेड़े के पीने तथा होमदि अनुष्ठानों के बाद बचे हुए ही तेरे दूध को मैं पी सकता हूँ। दूध पर पहला अधिकार बछेड़े का है और दूसरा अधिकार गुरूजी का है।

भक्त्यागुरौ मय्यन्नुकम्पया च प्रीतास्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व ।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुघां प्रसन्नाम् ॥

राजा के धैर्यने नंदिनी के हृदय को जीत लिया। वह प्रसन्ना कामधेनु राजा के आगे-आगे आश्रम को लौट आई। राजा ने बछेड़े के पीने तथा अग्निहोत्र से जीवित दूध का महर्षि की आज्ञा से अभिषेक किया, फलत: वे रघु जैसे महान् यशस्वी पुत्र से पुत्रवान् हुए और इसी वंश में गौ-भक्ति के प्रताप से स्वयं भगवान श्रीराम ने अवतार लिया।

महाराज दिलीप की गौ-भक्ति तथा गौ-सेवा सभी के लिए एक महानतम आदर्श बन गयी। इसी तरह आज भी गौ-भक्तों के प्रति श्रद्धा रखने वाले महाराज दिलीप का नाम बड़े ही श्रद्धाभाव एवं आधार से सर्वप्रथम लिया जाता है। इस चरित्र से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट से अधिक श्रेष्ठ एक गौ माता है ।

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चक्रवर्ती राजा दिलीप की गौ-भक्ति कथा हमें निष्ठा, समर्पण और धर्म के प्रति अपार श्रद्धा की महत्ता सिखाती है। यह कथा इस बात का प्रतीक है कि सच्ची भक्ति से कोई भी कार्य असंभव नहीं है।

राजा दिलीप की कहानी हमें यह संदेश देती है कि जब हम अपने कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा और समर्पण से करते हैं, तो ईश्वर भी हमारी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। आज के समय में, जब

हम चरित्र और मूल्य से भटक रहे हैं, राजा दिलीप की गौ-भक्ति कथा हमें सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। हमें यह सिखाते हैं कि सच्ची भक्ति और धर्मपरायणता जीवन में सफलता और संतोष का मार्ग प्रशस्त करती है।

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