Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 30(कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 30) in Hindi

कार्तिक मास हिंदू पंचांग के अनुसार एक महत्वपूर्ण और पवित्र महीना माना जाता है, जिसमें अनेक धार्मिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों का आयोजन होता है। इस मास में विशेष रूप से भगवान विष्णु की आराधना का महत्व बताया गया है।

"कार्तिक मास माहात्म्य" के विभिन्न अध्यायों में इस मास की महिमा और इससे जुड़ी कथाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस ब्लॉग में हम "कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 30" के बारे में चर्चा करेंगे, जिसमें इस पवित्र महीने की धार्मिक मान्यताओं, पूजा विधियों और आध्यात्मिक लाभों का वर्णन किया गया है।

यह कथा हमें न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से समृद्ध करती है, बल्कि हमें जीवन में सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देती है।

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 30

भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले- हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी- यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर सत्यभामा ने कहा- हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण भगवान बोले- प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

सतयुग में देश, ग्राम तथा कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो।

पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका सातवाँ भाग मिलता है। पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है।

नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे(जिसकी पत्तल उसने लांघी है) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करते हुए मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है।

जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है। जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है और शीघ्र ही निर्धन हो जाता है और जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है।

बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं। शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है।

जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है|

निष्कर्ष

"कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 30" हमें कार्तिक मास के महत्व और उससे जुड़े धार्मिक कर्मों के महत्व को समझने में मदद करती है।

इस अध्याय में वर्णित कथाएं और विधियां हमें इस पवित्र महीने की गहराई और धार्मिक महत्व को उजागर करती हैं। भगवान विष्णु की आराधना और व्रत-पूजा से जुड़े ये संस्कार हमारे जीवन को शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से भर देते हैं।

इस मास का पालन करते हुए हमें आत्म-संयम, सेवा और परोपकार का महत्व समझ आता है, जो हमारे जीवन को सार्थक बनाता है। इस कथा के माध्यम से, हमें यह प्रेरणा मिलती है कि धार्मिक और आध्यात्मिक साधनाओं का हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण स्थान है और कैसे यह हमें आंतरिक शांति और मोक्ष की ओर ले जाती हैं।

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